ओबेदुल्ला अलीम साहब की एक खूबसूरत ग़ज़ल
कुछ इश्क था कुछ मजबूरी थी, सो मैंने जीवन वार दिया
मैं कैसा ज़िंदा आदमी था, इक शख्स ने मुझको मार दिया
ये सजा सजाया घर साकी, मेरी जात नहीं मेरा हाल नहीं
ऐ काश! कभी तुम जान सको, जो उस सुख ने आजार दिया
मैं खुली हुयी इक सच्चाई, मुझे जानने वाले जानते हैं
मैंने किनसे नफ़रत की, और किन लोगों से प्यार किया
वो इश्क बहुत मुश्किल था मगर, आसान न था यूँ जीना भी
उस इश्क ने ज़िंदा रहने का, मुझे ज़र्फ़ दिया पिंडार दिया
सब्ज़ शाख थी इक गुलाब की, इक दुनिया अपने प्यार की थी
वो एक बहार जो आयी नहीं, उसके लिए सब कुछ हार दिया
मैं रोता हूँ और आसमान से तारे टूटता देखता हूँ
उन लोगों पर जिन लोगों ने मेरे लोगों को आजार दिया
वो यार हों या महबूब मेरे या कभी कभी मिलने वाले
इक लज्ज़त सबके मिलने में, वो ज़ख्म दिया या प्यार दिया
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