Sunday, October 27, 2013

सरल सा नाम


हमें  अखरोट मत समझो, हमें  बादाम मत समझो
हमें  काजू - छुहारों सा, बहुत बदनाम  मत  समझो
हमें किशमिश - चिरौंजी की, श्रेणी में न रखना तुम
बिना मात्रा का है सादा, सरल सा नाम 'जय' समझो

चित्र सौजन्य : गूगल

बाबा - दादी और दीवाली

 

दुकाने  सज  रही हैं  अब, सुनारों  की,  हलवाई की
बिजली की लड़ियों की, पटाखों,  बम,  चटाई  की। 
करोड़ों   का  धुआँ  यूँ  ही, सहज होकर उड़ाते 'जय'
मगर  क्योंकर  हमें आती, न यादें बाबा-दाई की ॥ 

वे  दिन कैसे भुलाए हैं, जब  बाबा संग टहलता था 
जब बाहर निकलते वे,मैं साईकिल से लटकता था
परम   संतुष्टि   मिलती  थी,  हमें  घंटी  बजाने  में
गजब की नरमी - गर्मी थी,  दादी  की  रजाई की ॥
मगर  क्योंकर हमें आती, न यादें बाबा - दाई की॥

कभी उनको खिझाता  मैं, कभी  मुझको  डराते  वे 
कभी  वे  गीत   गाते  थे,  कभी  मुझसे   गवाते  थे
हमें  हरदम   बताते   थे,  बुराई  क्या, भलाई  क्या
जाड़ों  में  अलावों  ढिग, कहानी  जो  सुनायी  थी ॥
मगर क्योंकर हमें  आती, न यादें बाबा - दाई  की॥

उजाले  मिल  गए  हमको,   अँधेरे  मिट गए  सारे
हमें लगता  है  हम  जीते,  लेकिन  हम  सदा  हारे
रिश्तों  में खटास आयी,  मधुरता अब  नहीं  बाकी
अपनापन  मिटा  प्यारे,  कमी  आयी समाई  की॥
मगर क्योंकर हमें आती, न यादें बाबा - दाई  की॥

चित्र सौजन्य : गूगल 

निठल्ला चिंतन



हमारे घर के बाजू में, तुम्हारा घर अगर होता । 
तुम्हारा घर ना घर रहता, हमारा घर ना घर होता ॥  

हमारे घर जो होते तो, दर-ओ-दीवार ना होते 
छतों से चांदनी आती, समाँ भी पुरअसर होता ॥ 

किसी के भी बुलाने पर, किवाड़ो तक ना जाते हम 
मकाँ के हर सिरे से वह, हमें साबुत नज़र होता ॥

जहाँ पर बैठ जाते हम, वहीं सब काम हो जाते
खाना भी नहाना भी, व दरबार-ए-सदर होता ॥

हमें ताले व चाभी की, कभी चिंता नहीं होती 
मरम्मत रंग-रोगन के, खर्चों का न डर होता ॥

हमें तुमसे जो मिलना हो, तो अन्दर से ही मिल लेते 
गले मिलने के दरम्याँ 'जय',खिसकने का सफ़र होता ॥
  


 चित्र सौजन्य : गूगल 

संगम



हम अगन-पथ पर चलें, निर्भय बने
हम गगन पथ पर चलें, जलधर बने
'जय' नयन पथ पर चले, संगम बने
पवन पथ पे चल के हम जीवन बने
   

चित्र सौजन्य : गूगल 

Saturday, October 26, 2013

बुनियाद से खेलें


हम  आग से  डरते  हैं,  चलो  आग  से  खेलें
हम  साँप  से  डरते  हैं,  चलो  नाग  से  खेलें
उंम्मीद  में  जीवन टिका है, लोग यह कहते
'जय' जिन्दगी की इस बड़ी बुनियाद से खेलें 

चित्र सौजन्य : गूगल 

धुन सुनाओ तुम स्वयं को



जब तुम्हारा अहं मुखरित हो के कुछ कहने लगे 
जब तुम्हारा  मन  तुम्हारे  हृदय  को  डसने लगे 
वर्जनाएं   तोड़   कर  जब  तव  हृदय  बहने लगे
गज-घंट  सी  मंथर  मनोहर, धुन  सुनाओ तुम स्वयं को ॥ 

जब निराशा के भँवर में फँस के घबराने लगें 
अपनी धड़कन के स्वरों से तन ये थर्राने लगे 
जब  कल्पनाओं की उड़ाने छत से टकराने लगे 
उड़  रही चिड़िया  के  पर  की धुन सुनाओ तुम स्वयं को ॥

जब सफलता पास आकर भी तुम्हे यदि न मिले 
दृष्टि  जिसको  छू  रही  हो, वह  किनारा  न मिले 
जब आश्रितों के कंधे और उनका सहारा  न मिले 
तड़ित-गति के क्षणिक पल की धुन सुनाओ तुम स्वयं को॥ 

जब अकेलेपन  का  दानव  तुम  को धमकाने लगे 
जब वेदना की लहर उठ तन-मन को सरसाने लगे 
जब कोई  बदली अति घनी हो विरह बरसाने  लगे
सिन्धु  की  उठती  लहर  की  धुन  सुनाओ  तुम  स्वयं  को ॥ 

क्यों दर्पणों  के  पास  जाकर देखते  हैं  हम स्वयं को
मन के अंदर से निकालें, हम स्वयं से ही स्वयं को ॥
किसलिए  'जय'  चाहते  हम,  कल्पना  व सपनों को
हर किसी की कल्पना क्यों न बनाएं हम स्वयं को ॥


चित्र सौजन्य : गूगल 
       

Friday, October 25, 2013

रेत से एहसास


फिर उभरे हैं रेत से सरकते एहसास  ॥ 

हाँ, ये वही तो था जो धूमकेतु की तरह आया 
बढ़ती जलधारा की तरह हमारे रिक्त हृदय में समाया 
मुझे लगा कि कोई है जो सुखद राह दिखलाएगा 
फिर बंद हुए दरवाजे जिसके लिए ...
........................... मुझे लगा वह आयेगा 
बंद द्वार से मैं देख रहा था उसी को अभी तक 
मैं अकेला हूँ, अकेला ही रहूँगा अब कई सदी तक
मैं हूँ सब जगह, कोई नहीं है मेरे आसपास ॥ 
फिर उभरे हैं रेत से सरकते एहसास  ॥ 

मेरे मनो-मस्तिष्क को जिसने पढ़ा .... वही तो था 
मैं बाँटा बहुत कुछ अपना जिससे ....... वही तो था 
तब मुझे लगा था अकेला नहीं हूँ कोई मेरे साथ है 
मेरे कंधे से उसका कंधा, मेरे हाथों में उसका हाथ है 
मैं हतभाग्य! कुछ कदम ही चल पाया कि एकाकी हो गया 
हासिल न हुआ कुछ भी, सब कुछ बाकी हो गया 
लगा कि मेरे ऊपर से हट गया है आकाश  ॥ 
फिर उभरे हैं रेत से सरकते एहसास  ॥

हाँ, वही तो था जिसके माथे पर मैंने तिलक लगाया था 
हाँ, वही तो था जिसको मैंने अपने गले से लगाया था 
मैं मान बैठा था कि वह है मेरा दूर तक का साथी 
हवा के एक झोंके में रह गयी है धुआँ छोडती हुयी बाती 
कीकरों की छाँव में 'जय' तुझे अब चलना ही होगा 
छद्म छाया के भरोसे, तुझे काँटों से बचना ही होगा 
रुधिर, आँसू, स्वेद, पीड़ा, कठिन-पथ, उच्छ्वास ॥ 
फिर उभरे हैं रेत से सरकते एहसास  ॥




चित्र सौजन्य : गूगल 

परदेशी सजन !


     
मौक़ा भी है, दस्तूर भी है और हसीं रात है 
तुम हमसे बहुत दूर हो, इतनी सी बात है॥ 
परदेशी सजन! तुमको दिखते डालर-ओ-दीनार 
क्या सच में, इनपे ही टिकी हुयी कायनात है ॥ 

तुम्हे याद करके, मुस्कुराना, सिहर जाना 
नाराज खुद से होना, शरमा के सिमट जाना 
हम पलकें बिछाए बैठे हैं, अब आ भी जाइये 
शीत में भी जल रहा, मेरा कोमल गात है ॥
तुम  हमसे बहुत दूर हो, इतनी  सी बात है॥ 

सन्देश तुम्हारे मुझे मिलते रहे हैं रोज ही 
ठहरी सी ज़िन्दगी लगे है मुझको बोझ सी 
मरती  हैं  उमंगें मेरी 'जय' सुबह हर शाम 
देखतें हैं साँसे देती कब तक मेरा साथ है ॥ 
तुम हमसे बहुत दूर हो, इतनी सी बात है॥ 

रू-बरू


क्यों दर्पणों के पास जाकर देखते हैं हम स्वयं  को
मन के अंदर से निकालें, हम स्वयं से ही स्वयं को
किसलिए 'जय' चाहते  हम,  कल्पना   सपनों  को
हर किसी की कल्पना क्यों न बनाएं हम स्वयं को

उपसंहार


कोई गम नहीं है, कोई आह नहीं है
कोई जिक्र नहीं है, कोई चाह नहीं है
जिंदगी भी कैसे-२ मोड़ लाती 'जय'
इस मोड़ के बाद किन्तु राह नहीं है

आत्म विश्लेषण



मैं हिमनद नहीं, सागर नहीं, मैं नहीं भूचाल हूँ
जो मलिनता से परे हो, ऐसा लघुतम ताल हूँ
जीतने की चाह है पर,बिन किसी को कुचले ही
मंदगति लेकिन निरंतर,'जय'मैं कछुआ चाल हूँ

प्रवृत्ति


टहनियों में हँस रही थीं कुछ हिना की पत्तियाँ,
किस ने पत्थर से इन्हें 'जय' पीस दिया है ।
वल्लाह ! पत्तियाँ  भी कितनी ज़िंदादिल रहीं,
पत्थर पकड़ने वाले को रंग नसीब किया है॥ 

बँटवारा : एक दु:स्वप्न


आज हमें कुछ स्वप्न दिखे हैं, अपनी देहरी गलियारे में
दुबकी   सी    इच्छाएं   देखी,   लम्बे चौड़े चौबारे में
सहमे - सहमे खेत सभी  हैं, ठिठक रहे खलिहान हमारे
बाग़ - बगीचे रुदन कर रहे, सिकुड़ -सिमट अँधियारे में

सिसक रही वह जगह जहाँ पर कभी पेड़ था दाड़िम का
 उपहासित हो रहा आज वह , तुलसी - चौरा आँगन का
चौपाये  सब  देख  रहे  है घर  के बंद किवाड़ों  को
उल्टी  पडी   दुधाडी  रोये ,   बुझे  -  बुझे दुधियारे में
आज हमें कुछ स्वप्न दिखे हैं, अपनी देहरी गलियारे में

उठने  लगी  दीवारें अब तो घर के आँगन - कमरों में
तेरा   मेरा  बन   कर  के बँट रहा बरोठा टुकड़ों  में
दादी - अम्मा की खटिया अब , दरवाजे बाहर पडी हुयी
चरही   ऊपर   बनी  घडौची , चूल्हा है  भुसियारे  में
आज हमें कुछ स्वप्न दिखे हैं, अपनी देहरी गलियारे में

बच्चों पर प्रतिबन्ध लगा है,इधर न जाना,उधर न जाना
बेचारे वे उलझ गए हैं, क्यों  न जाना, किधर ना  जाना
बच्चे तो बच्चे हैं 'जय' , क्यों न बड़ों की समझ में आये
अलग   रहे   तो   टूट जायेंगेताकत है सझियारे में
आज हमें कुछ स्वप्न दिखे हैं,  अपनी देहरी गलियारे में
       

(देहरी=दहलीज; चौबारा=छज्जा(बालकनी); दाड़िम=अनार; दुधाडी=दूध की हाँडी; दुधियारा=वह स्थान जहां पर उपले जला कर ढूध की हाँडी रखी जाती थीबरोठा=बरामदा; चरही=जानवरों को चारा खिलाने का स्थायी स्थानघडौची=पानी भरे घड़े/बाल्टी आदि रखने का स्थान; भुसियारा= भूसा रखने की कोठरी; सझियारा=एकता)

Thursday, October 24, 2013

प्रेम का परिदान



प्रेम-नभ पर उडती है ये,प्रणय-पथ पर झूलती है
रतिबद्ध हो काया निगोड़ी, हर कला को भूलती है
कैसा अनोखा दान यह या,प्रेम का परिदान 'जय'
नवसृजन के अंकुरण की गरिमा से फल-फूलती है

माँ




माँ ! तुम्ही हो साधना, हो कल्पना और ज्ञान  हो
माँ ! तुम्ही हो ऊर्जा, हो  गर्व  और अभिमान  हो
माँ ! तुम्ही  हो सृष्टि की प्रथम मौलिक रचनाकार
माँ ! तुम्ही  हो मान, गौरव गान, 'जयसम्मान हो

Wednesday, October 23, 2013

यायावर


क्यों हमारी इस ग़ज़ल को गीत बन जाने दिया 
सृजन की अदभुद सुरीली रीति बन जाने दिया
'जय' अकेला मस्त था,बन कर यायावर घूमता 
क्यों सोन-चिड़िया को हमारा मीत बन जाने दिया

आपसे ....... आमने - सामने



(१)
तुम कभी अपने को कमतर क्यों कहो 
समय के अनुसार सुख-दुःख सब सहो
दृष्टि  ऊँची  रख  कर , सीना  तान  कर
मुस्कुरा कर पथ पे निशदिन 'जय'बढ़ो

(२)
हाँ, सफलता आज संभव ना हो क्वचित 
किन्तु प्रियवर, तुम ना होना दिग्भ्रमित 
पत्थरों को तोड़कर नदियाँ निकलती हैं
स्वर्ग  से  गंगा को लाये 'जय' भगीरथ || 

Monday, October 21, 2013

करवा-चौथ (दो - चित्र)




(१ )

मेरे सुनहरे सपनों को , अब एक साथी मिल गया
मादक उमंगो की लहर का, एक माझी मिल गया
उँगली में मुँदरी डाल कर , 'जय' कहाँ पर खो गए
आज मेरे मन का आँगन,पुष्प-वन सा खिल गया


(२)

स्मृतियों में सघन बसी हो, हे परिणीते!
आप  बिना  'जय' अंतर-मन हैं रीते रीते
हिरणी  सी  भर उच्च कुलाँचे आ जाओ
या  साथ पवन के आओ मेरे जीते जीते


चन्द्र-बिम्ब



मेघों  के  आँचल  से  चन्दा, मुझे   बुलाता  रह -  रह कर
मंद पवन  का  झोंका  मुझको , ले जाता अनजान  डगर
मुझे पता है 'जय'  बैठा है , कहीं किसी सरिता के तट पर
देख रहा  है चन्द्र-बिम्ब में , मुझे अभी प्रति लहर - लहर

दृढ आत्मविश्वास


हम  आग  समंदर  में, लगाने  को खड़े हैं
गोया   हमारे   हौसले ,  पर्वत  से   बड़े  हैं
ख़्वाबों को हकीकत में बदलना ही चाहिए
'जय'  पैर  अगर जमीं में ,  मुस्तैद अड़े हैं

दिल धक् से करे (साइलेंट लव)




तुम जब भी मिली, हमने तुम्हे गौर से देखा
ये  और  बात  है  कि,  तुमने  और को देखा

तुम मुस्कुरा  रही  थी  किसी  गैर  के संग में
फिर  भी  हमारे  होंठों  खिंची  गोल सी रेखा

हमने  हमारे  हाथों  को  आतिश में जलाया
जब  भी  कभी  हमने तुम्हे रोता हुआ देखा

तुम  जब  भी शरारत से,दुपट्टे को गिराओ
दिल धक् से करे मुड के देखूँ किसने है देखा

मैं  हफ़्तों  चाहे  तुमको ,कभी  देख न पाऊँ
ख़्वाबों  में  मगर  तुमको  मैंने रोज है देखा

पहलू  में  मेरे  होती  हो  पर  दूर  बहुत  हो
रातों  में  बंद  आँखों  में  सौ  बार  है  देखा

बाहों में  भर  लिया है, उसी पेड़ को 'जय' ने
तुमको  गले  लगाते  जिसकी  ओट से देखा

डौंडियाखेडा


स्वप्न  देख  विचलित  हुए  बाबा  शोभन सरकार
दबा   हुआ  था   सोने   का  बहुत    बड़ा   भण्डार

बहुत  बड़ा  भण्डार , डौंडियाखेडा   की  धरती  पर
ध्वंस हो चुके एक किले की  ऐतिहासिक छाती पर

देश प्रदेश विश्व से प्रतिनिध आने लगे हैं निशदिन
टनों  स्वर्ण  के  एक  नहीं  'जय'  देखे दो दो स्वप्न

बोलती बंद है ...........




बोलती बंद है ...........

मैं भारत की राजनीति हूँ। आज मैं अत्यंत दुखी और बीमार हूँ। मेरी इस दशा के लिए कोई अन्य देश अथवा कोई दैवीय आपदा दोषी नहीं है बल्कि मेरे अपने सपूत हैं जिन्हें मैंने छक छक कर अपना दूध पिलाया है। आज यही सपूत मेरी साड़ी खींचने में लगे हुए हैं।


मैं सदैव ऐसी मरियल और बीमार नहीं रही हूँ। शुभ्र धवल कपड़ों में देदीप्यमान मेरा वह अस्तित्व आज भी मेरे जेहन में रचा बसा है  जब मैं नई नवेली भारत में आयी थी। मैं इस देश के स्वतंत्रता सेनानियों की अमानत की तरह थी। मेरे आँचल की छाया में स्वतंत्र भारत के बहुत से सच्चरित्र सपूतों ने देश की सेवा की शपथ ली थी। मुझे गर्व हुआ जब इन उत्साही सपूतों के दिन रात किये गए वैचारिक और शारीरिक श्रम से देश ने विश्व में अहम मुकाम हासिल किया। खादी के वस्त्र और गांधी टोपी मेरी पहचान बन गयी। मैं बहुत प्रसन्न और खुशहाल थी।

सरकारी सहायता के दौर में मेरे माथे पर कलंक के दाग लगने शुरू हो गये। कुछ लालची नेताओं ने सरकारी सहायता की लूट खसोट के नए नए तरीके ईजाद किये और फिर दोनों हाथों से धन संचित करने लगे। उनका दुर्भाग्य कि यह धन, धन न कहला कर कालाधन कहलाया। जब मैंने पहली बार ऐसे धन का नाम सुना तो एक बार मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि ऐसा घृणित और निंदनीय कार्य मेरे आँचल का दूध पीने वालों ने किया है। उफ़ .. कालान्तर में घोटालों की कालिमा ने न केवल मेरे चेहरे को काला किया बल्कि मेरे शुभ्र वस्त्रों के  साथ मेरी अंतरात्मा  को भी काला कर दिया। गौरवशाली इतिहास को जीने वाले व्यक्तित्व के लिए ऐसा समय जीते जी मृत्यु के सामान है।


मैं सोचने को विवश हूँ कि क्या मेरे दूध में कोई विकृति आ गयी है जिसके कारण मेरे बच्चे अब विकृत मानसिकता के शिकार होने लगे हैं? क्या मेरी कोख से ऐसे ही बच्चे जन्म लेंगे जो कदम दर कदम मुझे कलंकित करते रहेंगेक्या मेरी साड़ी को मेरे ही बच्चे खींच कर मुझे नग्न करते रहेंगे? क्या मेरे शरीर पर  शुभ्र और धवल वस्त्र कभी फिर से सजेंगे? प्रत्येक पंचवर्षीय चुनावों से पूर्व मेरी अपेक्षा बढ़ जाती है और हर चुनाव के बाद अगले चुनाव तक के लिए मृतप्राय हो जाती है। एक बार फिर से  २०१४ के चुनाव को देखते हुए मेरी अपेक्षा  पुनः बलवती हुयी है। फिलहाल तो मेरी बोलती बंद है .....       

Sunday, October 20, 2013

श्रेष्ठ यह इंसान है



अब  भी मनुज में नीर है, स्वाभिमान है
क्यों  कहने लगे हैं लोग, कि बे-ईमान है

अब भी धरणि में हैं चराचर जीव इतने
फिर  भी   सभी  में  श्रेष्ठ  यह  इंसान है

हम  में  उफनती  भावनाएँ  इस  कदर
हम  खोजते  पत्थर में  भी  भगवान् हैं

यदपि मनुज ने मारे हैं चौपाये  नभचर 
हमने   इन्हें   पाला, दिया  सम्मान  है

जिनमे  भरा  है जंगलों का  जीव 'जय'
वे  नर - रूप  हो कर भी  नहीं इंसान है 
   

भूखा प्यासा फेलिन



नयन - नीर से लिखी हुयी है जलधि-लहर की भाषा
पवन - पिया का साथ मिले  तो करती नया तमाशा

करती  नया  तमाशा , ये  तो  इतराती  बल खाती हैं
दूर - दूर  तक दौड़ धरा पर ,   नया निकेत बनाती हैं

कितने जीवन निगल गया यह भूखा प्यासा फेलिन
'जय' कैसी ये लहरें जो सजल कर गई कोटि नयन ॥

अभिव्यक्ति



हम आसमां से सितारे तोड़ते नहीं कभी
हम पर्वतों के शीश पर चढ़ते नहीं कभी
हमने दिलों में फूल खिलाये हैं'जय'सदा
दामन में तारे,चोटियाँ क़दमों में हैं सभी

हृदय-कलश जब छलकेगा


हृदय-कलश जब छलकेगा, 
तो नयनों से नीर बहेगा ही

मन - अन्तर जब दहकेगा, 
तो जिह्वा से तीर चलेगा ही 



क्रोध,वियोग,प्रेम और पीड़ा, 
चित्त को 'जय' बहकाते हैं 



क्षमा,त्याग और दया संग हों,
तब मन तो धीर धरेगा ही

विडम्बना



अब गगन में घन हैं, 
लेकिन वे सजल दिखते नहीं


हैं अवनि में वृक्ष कोटिश,
पर वे सघन दिखते नहीं


है उदर परिपूर्ण लेकिन,
क्यों क्षुधित रहता है 'जय'

सिंधु में है जल असीमित,

पर पूर्णतन दिखते नहीं