Wednesday, October 16, 2013

सूरज के प्रति





इतना निष्ठुर नहीं है कोई, जितना है यह एक दिवाकर।       
ऐसा स्वार्थी नहीं है जग में, जैसा है यह एक प्रभाकर ॥ १॥ 



चिकनी चुपड़ी बातों से, पहले रजनी का दिल जीता     
लूटा फिर उसको दिनेश ने, बातों में फुसला कर ॥ २॥



आँसू पीकर निशा बेचारी, फिर भी उसके साथ रही    
मगर पलायन कर बैठा, भास्कर इसे सुला कर ॥ ३॥



कुछ दूरी पर प्रभा मिल गयी, नई नवेली निशा सहेली       
रोक लिया दिनकर ने उसको, किरण बाँह फैला कर ॥ ४॥



किसे पुकारे रक्षा को वह, पास नहीं है चन्दा - तारे          
चूम लिया अधरों को रवि ने, सहसा उसे उठा कर ॥ ५॥ 



मदमस्त हो गया सूरज, चुंबित अधरों की यादों से         
चंचल हो गया और अधिक, संग सुबह का पा कर ॥ ६॥ 



भानु जितना आगे बढ़ता, उतना ही वह तप्त हो रहा          
साथ छोड़ गयी सुबह बेचारी, गर्म तेवरों से घबराकर ॥ ७॥ 



सूर्य अकेला चल पाया ना, एक कदम के अंतर तक        
घूँघट डाले वहीं खड़ी थी, प्रिय-प्रेयसी सजी दोपहर ॥ ८॥ 



जितना प्रचण्ड मार्तण्ड हुआ, उतनी तपती रही दुपहरी     
धन्य हो गई फिर वह उस की, शीतलता को पा कर ॥ ९॥ 



चलने की सामर्थ्य रही न, आफताब हो गया निढाल          
पुनः उसे स्फूर्ति मिल गयी,संध्या के आगोश में आकर ॥१०॥ 



चोर छोड़ देगा चोरी, 'जय' हेरा फेरी छोड़े कैसे       
मना रहा है रात्रि को वह, अब संध्या को भी भुलाकर ॥११॥

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