एक बड़े नीम के पेड़ पर उगे उस पीतल के पौधे को समर्पित है यह कविता जो बाद में उस सूखे नीम के पेड़ के तने को चीरता हुआ धरती को छूता है और कुछ ही वर्षों में उस स्थान पर नीम का वृक्ष नहीं रह जाता और उसके स्थान पर एक विशाल पीपल का वृक्ष शेष रह जाता है।
यह परजीवी जीवन कैसा
व्योम चूमते, सुगठित, सुन्दर और पल्लवित तन में
जन्म तुम्हारा हुआ किन्तु न तो धरा में नहीं गगन में
गर्भित तन की मृतक देह में, खिला खिला बचपन कैसा
यह परजीवी जीवन कैसा
भीषण वायु प्रकोप सहे, तव पत्र न टूटे, तुम्हे बचाया
जिस सानिध्य में युवा हुए, उसी देह को तुमने भुलाया
नष्ट किया उस तन को तुमने, परपीड़क! यह यौवन कैसा
यह परजीवी जीवन कैसा
पैर तुम्हारे अवनि छू रहे, मृतक देह के अन्दर से ही
प्रमुदित हो कर डोल रहे हो, वायु वेग के संग संग ही
मर कर भी जो पर-जीवन दे, धन्य धन्य अपनापन कैसा
यह परजीवी जीवन कैसा
क्या ज्ञान दे रहा यह जानो, हे मूढमति! मेरा जीवन
मैं प्रमुदित और पल्लवित हूँ, आधारहीन यद्यपि मेरा तन
तुम भी सदा प्रसन्न रहो, 'जय' नाशवान जीवन ऐसा
यह परजीवी जीवन कैसा
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