फ़ैली है ग़मगीन सियाही महफ़िल महफ़िल मकां मकां
रोशन है एक शमा अकेली, करे उजाला कहाँ कहाँ
धूम धडाका होता रहता बारूदी गोलों से हरदम
आज इन्सां के कारण ही है काएनात सब धुआँ धुआँ
आफताब तो गर्मी उगले, माहताब भी उगल रहा
उबल रहे हैं दरिया सागर, सुलग रहा है सारा जहां
खा जाता है रोज हज़ारों, सुर्ख हिना से सजी हथेली
इस दहेज़ के कारण बिकते जिस्म शहर में यहाँ वहाँ
भूखा इन्सां लूट रहा 'जय' अपने ही भाई की रोटी
इक टुकड़े के कारण लाशें,गिरती जमी पर जहाँ तहाँ
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