गंतव्यहीन पथ पर
आधारहीन रथ पर
चलता रहा निरंतर।
अंधड़ व आँधियों में
बर्फीली घाटियों में
जलता रहा निरंतर॥
साथ लिए बोझिल मन ॥
आह! मेरा दारुण क्रंदन ॥
भावी पल कंकाल बना
जीवन अब जंजाल बना
निःश्वासों का है बंधन।
ठोकर लगती है पल पल
मिला चतुर्दिक केवल छल
क़दमों में भी है कम्पन॥
आह! मेरा दारुण क्रंदन ॥
जब शेष नहीं था धन ॥
भाग्य बुलाता रहा
स्वयं मनाता रहा
मैं हार गया फिर भी।
आशा
विहीन होकर
आलस में खूब सोकर
हर श्वास कर दी गिरवी॥
जब शेष नहीं था धन॥
ढोते हुए टूटा तन ॥
चिंताओं की आग को
विवशता के झाग को
पीता रहा अभी तक ।
कल्पना की लहर में
जीवन की डगर में
जीता रहा अभी तक ॥
ढोते हुए टूटा तन ॥
'जय'
कैसा एकाकीपन ।
व्यर्थ हुआ मेरा जीवन ॥
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