पाँच
प्रश्न और कक्षोन्नति
हमारे पडोसी गाँव से पंडित राम भरोसे दीक्षित बचपन में हमें
प्रारम्भिक शिक्षा देने के लिए आते थे. शाम को पाँच बजे वे आते और बाहर छप्पर के
नीचे पड़े तख़्त पर बैठ कर एक हाँक लगाते : चलौ रे . और हम जहाँ भी होते अपना अपना
बस्ता पाटी लेकर भागते हुए उनके पास आते और डरते डरते पंडित जी के पैर छूकर
आशीर्वाद लेते और बैठ जाते पढ़ने के लिए . डरते डरते इसलिए क्योंकि उनके हाथों में
एक बहुत पतली दातून जैसी पतली सटकी सदैव रहती थी और कभी भी किसी की पीठ पर बज सकती
थी. इससे भी खतरनाक होता था उनका हमारे पेट में चुटकी काटना. चुटकी का दर्द तो सहन
हो जाता था किन्तु जब वे हमारे पेट की खाल को अपने अंगूठे और तर्जनी उँगली के बीच
में दबाकर हलके से रगड़ते थी .. उफ़ वह पीड़ा बस दइया .. दइया करके ही मिटटी थी. उफ़
.. आज भी रोंयें खड़े हो गए हैं उस चुटकी की पीड़ा को याद करके .. प्रभु पडित जी की
आत्मा को अपने चरणों में स्थान दें.
हम पाँच छह चचेरे भाई उनसे पढ़ते थे जिनमे कक्षा एक से लेकर कक्षा तीन
तक के विद्यार्थी होते थे. मैं गाँव की प्राथमिक पाठशाला में कक्षा एक का
विद्यार्थी था जबकि अन्य सभी भाई बंधु पड़ोसी गाँव के प्राथमिक पाठशाला में पढ़ते
थे. गाँव की पाठशाला में बहनजी बढ़ाती थीं जबकि पड़ोसी गाँव की पाठशाला में मास्साब
पढ़ाते थे. पिताजी ने निर्णय लिया कि मुझे अब पड़ोस की पाठशाला में पढ़ाया जाय. इसके
लिए उन्होंने पडित जी को हिदायत दी कि मुझे
पाठशाला में प्रवेश के लिए अर्ह शैक्षिक योग्यता के अनुरूप शिक्षित किया
जाए ... बस होगई गड़बड़ .. जहाँ सभी भाई बंधु गर्मी की पूरी छुट्टियों में अमिया- आम, महुआ-गुल्लू, गुलहर और चड़ढीमार में व्यस्त रहे वहीं
पंडित जी मुझे प्रतिदिन शाम को दो घंटे पढ़ाते और बहुत सा गृहकार्य भी दे जाते
जिसमे लिखित कार्य भी था और याद करने वाला कार्य भी होता था. सुबह से शाम तक
पिताजी का पहरा और शाम को पंडित जी का दरबार ... अज़ब सी ज़िंदगी थी उन दिनों में ..
सांसत ही सांसत ..
जैसे तैसे जून 1971 के अंतिम दिन आये तो पंडित जी ने एक बार सभी
पढ़ाई की पुनरावृत्ति करना आरम्भ किया .. एक से सौ तक की गिनती . गिनती में
उन्तालीस, उनचास, उनसठ, उनहत्तर, उन्यासी और नवासी को शाब्दिक रूप से
जानना और लिखना. एक से पच्चीस तक का पहाड़ा. सत्रह, अट्ठारह, उन्नीस और तेईस का विशेष रूप से याद
कराना, ड्योडा
और ढैया भी याद कराना . महाभारत और रामायण में उल्लिखित कठिनतम हिंदी शब्दों को
बारम्बार लिखना. दोनों ग्रंथों की मूल कथा और इसके चरित्रों को स्मृत रखना. गीता
के ग्यारह श्लोंकों की हिंदी अच्छे से स्मृत करना ... और भी बहुत कुछ ... आखिर
उन्हें अपने एक शिष्य को विद्यालय में प्रवेश जो कराना था .. और इसी के साथ उन्हें
अपनी योग्यता का परिचय भी कराना था ताकि नए सत्र में कुछ और विद्यार्थी उनके दरबार
में शामिल हो सकें.
अंततः विद्यालय खुलने के दो तीन दिनों के बाद ही मैं पंडित जी के
पीछे पीछे दो फर्लांग की दूरी पर स्थित पड़ोसी गाँव की पाठशाला की तरफ बढ़ रहा था.
रास्ते भर उन्होंने मुझे धमकाया कि वहाँ किसी भी प्रश्न में यदि मैं अनुत्तरित रह
गया तो वे मेरी चमड़ी खींच देंगे. ..
नई पाठशाला . नए छात्र . नया वातावरण और नए अध्यापक. नज़रें घुमाई तो
मुझे कक्षा दो और तीन में हमारे कुछ भाई बंधु बैठे और मुस्कुराते हुए नज़र आ गए. मन
को कुछ तसल्ली हुयी ..
तभी पंडित मुझे लेकर कक्षा पाँच में पढ़ा रहे प्रधानाचार्य के पास
मुझे खड़ा कर के बोले - त्रिपाठी जी, यह नेता जी का लड़का है. शिष्ट और
होनहार है . इसका प्रवेश कक्षा तीन में कराना है.
त्रिपाठजी बोले - ठीक है टी सी कहाँ है ?
पंडित जी ने कुर्ते की जेब से टी सी निकाल त्रिपाठी जी को सौंप दी.
त्रिपाठी जी ने ऐनक के पीछे से उसे खँगाला और बोले - पंडित जी, आप भी सुबह सुबह परिहास करने चले आये ?
पंडित जी - त्रिपाठी जी, परिहास कैसा ..
त्रिपाठी जी - भाई यह तो कक्षा एक की टी सी है और आप प्रवेश कक्षा
तीन में कराना चाह रहे हैं .. कैसे संभव है ?
पंडित जी - आप छात्र की परिक्षा ले लें यदि यह कक्षा तीन में पढ़ने के
योग्य हो तब तो कर लेंगे. ..
त्रिपाठी जी - योग्यता होना अलग बात है किन्तु टी सी के अनुसार हम
इसे कक्षा तीन में प्रवेश नहीं दे सकते हैं. . और हाँ योग्यता होने पर भी हम सीधे
कक्षा में प्रवेश नहीं कर सकते हैं ..
पंडित जी तनिक पसोपेश में पड़ गए . उनके माथे से पसीना छलछला आया ..
अंगौछे से माथा पोछते हुए वे अपने अस्त्र शस्त्र फेंकते हुए बोले - त्रिपाठी जी, कोई रास्ता तो निकालिये अन्यथा मेरी
शाख को बहुत ठेस पहुँचेगी और चार पैसे की आमदनी बंद हो जाएगी ..
त्रिपाठी जी कुछ देर अपने नेत्र बंद करके जीनियस फाउंटेन पेन से अपने
माथे के मध्यभाग को ठोकते रहे और मस्तिष्क
के किसी कोने में सोई पडी किसी कारगर युक्ति को जगा कर बाहर लाने का प्रयत्न करते
रहे. बड़ी आशा से पंडित जी उनकी तरफ देखते रहे. इस बीच कक्षा पाँच में बैठे मैं
अपने चचेरे भाई से नज़रें चार करता रहा और आँखों आखों में वार्तालाप भी करता रहा.
कुछ पलों के बाद त्रिपाठी जी ने कहा - भई पंडित जी, अफ़सोस है कि कोई राह नहीं दिख रही है
सिवाय एक के ..
पंडित जी (तनिक बुझे मन से) - बताएं महोदय, क्या युक्ति सूझी है ..
त्रिपाठी जी - समाधान बहुत सीधा और तार्किक भी है. हम टी सी के अनुसार इसका प्रवेश कक्षा दो में कर रहे हैं. अभी हम
इसके बुद्धि कौशल का परीक्षण कर लेते हैं
. यदि हमें लगा कि यह कक्षा तीन के योग्य विद्यार्थी है तो नवंबर में होने वाली
छमाही परीक्षाओं के बाद इसे कक्षा तीन की कक्षोन्नति दे देंगे.
असहाय पंडित जी ने स्वीकृति दे दी और कहा - ठीक है त्रिपाठी जी, जैसा आप उचित समझें. अब आप इसकी
बौद्धिक परीक्षा भी ले लीजिये .
त्रिपाठी जी मुस्कुकाते हुए बोले- इसके लिए आपको कुछ पलों के लिए
यहाँ से हटना पड़ेगा पंडित जी, ताकि उत्तर किसी भी प्रकार से प्रभावित न हो . आप बाहर नीम के पेड़ के
पास पड़ी कुर्सियों में बैठिये . यह छात्र अभी आपके पास आ जाएगा .
पंडित जी ने आँखों ही आँखों में एक बार फिर से मुझे धमकाया और बाहर
निकल गए .
त्रिपाठी जी ने अब पहली बार मेरा एक्सरे किया और सामने बैठे छात्र से
किसी कॉपी के बीच से दो पन्ने निकाल कर देने को कहा.
अब उन्होंने में अपनी मेज के समीप बुला कर सामने खड़े होने को कहा .
मेज पर कागज़ फैला कर मुझे अपना फाउंटेन पेन दिया और एक छात्र को कक्षा तीन के एक
छात्र का नाम लेते हुए कहा - रवींद्र को कॉपी पेन के साथ बुला लाओ .
रवींद्र के आने पर उन्होंने उसे नीचे बैठ कर कॉपी खोलने को कहा . फिर
वे मुझसे और रवींद्र से बोले - अब मैं जो प्रश्न बोलूं उसका उत्तर
तुम दोनों को लिखना है . ठीक है .. समझ गए ..
हम दोनों ने हामी भरी तो वे बोले - लिखो (प्रश्न संख्या एक):
युधिष्ठिर , प्रतिस्पर्धा, उज्ज्वल, किंकर्तव्यविमूढ़, धृष्टद्युम्न . लिख लिया.
हम दोनों ने फिर से हामी भरी तो त्रिपाठी जी आगे बोले - अब जो मैं
बोल रहा हूँ वह गिनती लिखो (प्रश्न संख्या दो) :
उनचालीस, उनसठ, नवासी, उन्यासी, उनचासी .. लिख लिया ..
रवींद्र ने हाँ बोला किन्तु मैं चुप था . उन्होंने कहा - क्या बात है? मैंने कहा - मुझे एक नहीं आ रहा है .
उन्होंने कहा - तो उसे छोड़ दो और आगे लिखो.
मैं हताश हो गया और पंडित जी की सटकी और चुटकी याद आने लगी ..
त्रिपाठी जी - अच्छा अब तुम दोनों (प्रश्न संख्या तीन) सत्रह और उन्नीस का पहाड़ा लिखो .
हम दोनों लिखने लगे और लिख कर कहा - जी लिख लिया .
त्रिपाठी जी - ठीक है . (मुझे देखते हुए) अब दो प्रश्न मौखिक पूछ रहा
हूँ उनके उत्तर मौखिक दो . रवींद्र खड़े हो जाओ और वह पन्ना निकाल कर मुझे दे दो और
तुम अपनी कक्षा में जाओ .
रवींद्र ने वैसा ही किया और
चला गया तो त्रिपाठी जी ने मुझसे (प्रश्न संख्या चार) पंद्रह का पहाड़ा सुनाने को
कहा .
मैंने सुनाया - पंद्रह दूनी तीस, तियाँ पैंताला, चौके साठ, पँचे पचहत्तर, छक्के नब्बे, सते पंचोपर, अट्ठे बीसा, नौ पैंतीसा, दहम डेढ़ सौ.
वे मुस्कुराये और बोले - इसे तो पंडित जी ने नहीं सिखाया होगा ..
मैंने कहा - नहीं, इसे मेरे बाबा जी ने सिखाया है .
वे हँसते हुए बोले - बिलकुल यह प्रधान जी ही सिखा सकते हैं. (हमारे
बाबा जी स्वतंत्र भारत की पहली दो पंचवर्षीय में गाँव के प्रथम प्रधान चुने गए थे.
क्योंकि द्वितीय पंचवर्षीय में चुनाव नहीं हुए इसलिए पूर्वचयनित प्रधान ही दूसरी
पंचवर्षीय में कार्य करते रहे थे).
फिर वे बोले -(प्रश्न संख्या पाँच) तो अब बताओ :
कै अट्ठे बारह, कै अट्ठे बीस ..
कै नवाईं बिन सुन्न के
नब्बे, कै
दहाईं तीस ..
बाबा जी ने मुझे यह भी बताया था अतः मैंने उत्तर दिया -
डेढ़ अट्ठे
बारह, ढाई
अट्ठे बीस ..
एक नवाईं.बिन सुन्न का नब्बे, तीन दहाईं तीस...
वे हँसने लगे और बोले- जाओ, प्रधान जी से कहना मैं शाम को उनसे
मिलने आऊँगा. जाओ बाहर से पंडित जी को भेज देना ..
मैं चला आया और पंडित जी से अंदर जाने को कहा . वे बोले - सब कुछ आ
गया था कि नहीं !
मैंने कहा - नहीं, एक नहीं आया था ..
उन्होंने मुँह बिचकाया और बोले - तुम यहीं रुको. मैं मिलकर आता हूँ .
फिर चलता हूँ.
कुछ देर में वे आये . उनके चेहरे पर प्रसन्नता थी . आते ही बोले -
त्रिपाठी जी बहुत खुश हैं. तुमसे. छमाही में तुम कक्षा तीन में पढ़ने लगोगे .. कल
से यहाँ आकर कक्षा दो में बैठने लगो . चलो अब घर चलते हैं.
रास्ते मैंने उनसे कहा- पंडित जी, उनचासी को हम नहीं लिख पाए थे ..
इस पर वे हँसे और बोले - वह तो त्रिपाठी जी की चालाकी थी. उनचासी
होता ही नहीं है .. उनचास होता है या फिर पचासी .. तुमने नहीं लिखा तो अच्छा ही
हुआ न .. दूसरे लड़के ने 49 लिखा था . अब कल से तुम कक्षा दो में बैठ कर पढ़ाई करो ..
यही हुआ .. छमाही परीक्षाओं के बाद मुझे कक्षोन्नति मिली किन्तु
कक्षा तीन मैं ठीक से पास नहीं कर सका और मुझे संपारित करके कक्षा चार में पढ़ने की
अनुमति दे दी गयी. इस प्रकार मैंने एक वर्ष में दो कक्षाएं पास की थीं. तब पंडित
जी की अच्छी खासी 'जय'कार हुई थी.