Sunday, October 27, 2013

निठल्ला चिंतन



हमारे घर के बाजू में, तुम्हारा घर अगर होता । 
तुम्हारा घर ना घर रहता, हमारा घर ना घर होता ॥  

हमारे घर जो होते तो, दर-ओ-दीवार ना होते 
छतों से चांदनी आती, समाँ भी पुरअसर होता ॥ 

किसी के भी बुलाने पर, किवाड़ो तक ना जाते हम 
मकाँ के हर सिरे से वह, हमें साबुत नज़र होता ॥

जहाँ पर बैठ जाते हम, वहीं सब काम हो जाते
खाना भी नहाना भी, व दरबार-ए-सदर होता ॥

हमें ताले व चाभी की, कभी चिंता नहीं होती 
मरम्मत रंग-रोगन के, खर्चों का न डर होता ॥

हमें तुमसे जो मिलना हो, तो अन्दर से ही मिल लेते 
गले मिलने के दरम्याँ 'जय',खिसकने का सफ़र होता ॥
  


 चित्र सौजन्य : गूगल 

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