तीन छणिकाएँ
( 1 )
उखड़ी हुयी हैं साँसे, है जकड़ा हुआ शरीर
बदले हालात में 'जय' है अकड़ा हुआ ज़मीर
( 2 )
कुछ ख्वाब उड़ चले हैं, साँसों के आसमां पर
मंज़िल कहाँ, किधर 'जय' तय है दुआ हवा पर
( 3 )
छेड़छाड़ और बलात्कार के मसले आँखों और ज़ेहन में ही होते हैं
वरना वही कपडे और वही अंग खुद की बेटी-बहन के भी होते हैं ||
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