अति समीप्यबोध को दूर तो हटाइये
हृदय - दधीचि मर रहा है फिर परोपकार में
मन - मयूर रो रहा है बादलों के शोर से
नयन मीन बन गए हैं प्रिय बिना त्यौहार में
चमक - चमक दामिनी उर - प्रदाह दे रही
या कि भार बढ़ गया है आज कंठ - हार में
रक्त - रंजिता हुयी हैं भावनाएं आज सब
कुचल-२ के मर रही हैं मन-महिष की मार से
चाहना यही है एक, प्रिय बहुत समीप हो
एक बार आन मिलो अब असीम प्यार में
डूब चली शोक में पपीहरे की बूँद ' जय '
दग्ध हृदय, तप्त गात, मन है उदधि ज्वार में
चित्र सौजन्य : गूगल
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