सूरज हँसता, चन्दा हँसता, हँसते सभी सितारे
हँसती नदियाँ, पर्वत हँसते, हँसते सागर सारे
पेड़ और पौधे हँसते हैं, पशु भी हँसते हैं
हँसते पक्षी, हँसती झीलें, हँसते पुष्प दुलारे
सब हँसते हैं किन्तु नहीं हँस पाता है मानव
रोते रोते बन जाता है वह मानव से दानव
अखिल प्रकृति हँस रही निरंतर, नाच और गुनगुना रही
लेकिन मानव के चेहरे पर भाव उभरते जैसे शव
इन भावों के पीछे बैठी रहती है अमिट उदासी
इसी उदासी के संग रहती परमप्रिया सी दासी
दासी कोई और नहीं है, यह है मनुज - हताशा
इसी हताशा की जननी है एक कामना प्यासी
एक कामना पूरी होती, दूजी शीश उठाती है
कामनाएं परिपूर्ण न होती, आगे बढ़ती जाती हैं
बचपन से आ जाता बुढ़ापा, कामनाओं के पीछे चलते
सदा अधूरी रहती हैं ये, अर्थी तक उठ जाती है
कामना सुखी न होने देती कभी किसी नर-नारी को
कामना खुश न होने देती प्रजा और अधिकारी को
कामना कभी न हँसने देती चाहे जितना करले प्रयास
किन्तु कामना देख के डरतीं संतोष भाव की आरी को
हे मानव-मन संतोष करो, कह दो कि स्वीकार किया
अब तक जो भी हमें मिला सचमुच प्रभु ने खूब दिया
मन तृप्त हुआ है संग्रह से, कोषों से, कोषागारों से
आवश्यकताएं पूर्ण हुईं, आवश्यकता से अधिक दिया
कहीं तो रुकना होगा तुझको, 'जय' कहीं ठहरना होगा
जीवन में संतोष बढ़ा कर, कहीं तो "बस" कहना होगा
धन्यवाद के स्वर उठने दो, तृप्ति की वंशी बज जाने दो
चराचरों के साथ ही मानव! तुझको भी हँसना होगा
No comments:
Post a Comment