Saturday, June 19, 2010

प्रेम की सूखी नदी

प्रेम की सूखी नदी की , तलहटी में बढ़ रहे हैं /
विरह के ये शंकु पत्थर, अब हृदय में गड़ रहे हैं //

प्रेम जल में तरणि ऊपर, स्वप्न बैठे थे अनेकों
ज्वार ने निगला सभी को बच न पाया एक देखो
आह कैसा समय आया पात द्रुम से झड रहे हैं /
विरह के ये शंकु पत्थर, अब हृदय में गड़ रहे हैं //

तट नहीं मिल पाया मुझको, मैं नदी में ही बहा
बह ना पाया कुछ पगों तक, प्रेम जल भी ना रहा
आगतों को बिन निहारे, हम विगत से लड़ रहे हैं /
विरह के ये शंकु पत्थर, अब हृदय में गड़ रहे हैं //

हर हृदय की कामना कि, वह छुए ऊंचा शिखर
भानु ना बन पाए तो फिर बन रहे हैं ग्रहण क्योंकर
कौन सा 'जय' काव्य इनका, गद्य कैसा पढ़ रहे हैं /
प्रेम की सूखी नदी की , तलहटी में बढ़ रहे हैं /
विरह के ये शंकु पत्थर, अब हृदय में गड़ रहे हैं //

No comments:

Post a Comment