घोर अमावस की रातें थी जब मैं क्वाँरा था
भटक रहा था इधर उधर, ना प्रेम सहारा था
दूज के चाँद सा जीवन हो गया जब तुम मुझे मिली
रोम रोम हो गया बगीचा जब हृदय में कलियाँ खिली
पूनम का चन्दा बन कर तुम मेरे घर आयीं
जीवन का मिट गया अँधेरा शुभ्र चाँदनी लायीं
बरस दो बरस बीत न पाए, पड़ गया चाँद ग्रहण
पल पल याद आ रहा अब, 'जय' अपना क्वांरापन
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