बचपन का एक वाकया याद आ गया है आज ।
शायद मैं कक्षा 5 में पढ़ रहा था । पिताजी की एक परचून की दुकान होती थी उन दिनों । अच्छी खासी बड़ी दुकान थी और वे दिन भर व्यस्त रहते थे ।
एक दिन वे दोपहर में घर आये और स्नान - भोजन के बाद कपड़े पहने और दुकान जाने लगे ।
सहसा उन्हें लगा कि उनकी जेब से कुछ सिक्के नहीं हैं । शायद चार अठन्नियां । उन्होंने माँ से पूछा तो उन्होंने मना कर दिया और यह भी कहा कि उन्होंने ही स्वयं कहीं रख दिया होगा या खो दिया होगा। अब वे तनाव में आ गए । उन्हें तनाव इस बात का था कि कहीं यह निकृष्ट काम उनके ज्येष्ठ पुत्र (मैंने) तो नहीं किया है !
खोजबीन हुई और जब मेरा बस्ता पलटा गया तो उसमें से चारों अठन्नियां खनकती हुई नीचे आ गिरीं ठीक इसी समय पिताकी का क्रोध बहुत तेजी से ऊपर चढ़ गया ।
मैं बाहर नीम के पेड़ के नीचे खेल रहा था। दरवाजे की ओट से माँ ने मुझे बुलाया तो मैं आ गया। पास आते ही उन्होंने डपटते हुआ कहा - क्यों, तूने पैसे चुराए हैं ?
मैंने अनभिज्ञता जताई तो उन्होंने कहा कि पिताजी को पैसे मेरे बस्ते से मिल गए हैं । मैंने पुनः अनभिज्ञता जताई । इस पर माँ ने विश्वास किया और पिताजी के पास आकर कहा कि यह कार्य मैंने नहीं किया है ।
पिताजी ने अंगारा नेत्रों से मुझे देखा और एक जोरदार तमाचा गाल में मारा । प्रहार से मैं ज़मीन में गिर पड़ा किन्तु भय से चीख नहीं सका । मेरी आँखों के सामने अंधेरा छा गया । गाल जल रहा था। मैं सम्भला और गाल को सहलाते हुए उठ बैठा । मेरी आँखों में भय के साथ आँसू थे । इधर उधर देखा तो माँ कहीं नज़र नहीं आईं ।
पिताजी ने कहा - जब तुमने पैसे नहीं चुराए तो तुम्हारे बस्ते में कैसे आये ?
मैंने सुबकते हुए कहा - यह मुझे नहीं पता। मैंने न तो पैसे चुराए और ना ही बस्ते में रखे ।
एक जोरदार तमाचा दूसरे गाल पर पड़ा । मैं फिर से जमीन पर गिर गया । अपनी हथेलियों से दोनों गालों को टटोला तो उंगलियों की छाप महसूस हो रही थी। गाल दबाए उठ ही रहा था कि पिताजी की आवाज सुनाई दी - चोरी की और अब झूठ भी बोल रहा है । यही सिखाया है मैंने ? भई वाह, नेताजी (पिताजी एक प्रतिष्ठित और ईमानदार व्यक्तित्व वाले काँग्रेसी नेता थे) का लड़का चोर और झूठा भी है।
शायद उन्हें चोरी से अधिक अपने विश्वास के छलनी होने का आक्रोश था ।
मैंने उनकी तरफ देखा । नेत्र क्रोध से लाल तो थे किंतु वहाँ अब कुछ आँसू भी थे । मैने कहा - पिताजी, न मैंने पैसे चुराए और न ही झूठ बोल रहा हूँ । मुझे नहीं पता कि यह किसने किया है?
मेरी यह बात पिताजी को मेरी धृष्टता और जबानदराजी लगी । इस बार न केवल मेरी नीम की हरी छड़ी से जमकर सुताई की बल्कि दोनों हाथ बाँधकर धन्नी (छत) से लटका दिया । जाते जाते उस अंधेरे कमरे को बंद कर दिया तथा माँ को शामतक दरवाजा न खोलने की सख्त हिदायत भी देते गए। मुझे इतना ध्यान है कि मैं कुछ देर सिसकता रहा और पैरों के अँगूठे से फर्श को छूने का असफल प्रयास करता रहा और उसी दशा में सो गया ।
जब मुझे होश आया (नींद खुली) तो (स्व.) बड़ी अम्मा (ताई जी, जिन्हें माँ बुलाकर आयी थीं) मेरे हाथों में बंधी रस्सी को खोल रही थीं और रोते रोते पिताजी और एक रिश्तेदार को कोस रही थीं ।
बाद में मुझे पता चला कि पिताजी के जाने बाद बड़ी अम्मा ने अपनी तरफ से जासूसी की और हमारे घर पर रह कर कक्षा आठ में पढ़नेवाले रिश्तेदार (अब वे नहीं हैं इस दुनिया में) को दोषी पाया । रिश्तेदार ने यह कबूल कर लिया कि उन्होंने ही पिताजी के कुर्ते से पैसे निकाले थे और मेरे बस्ते में रख दिये थे। शाम को बड़ी अम्मा ने पिता जी को खूब खरीखोटी सुनाई और वे सिर झुकाए सुनते रहे और आँसू पोंछते रहे।
इस घटना के बाद से मेरे और पिताजी के बीच सम्बन्ध एकदम अटूट और उनकी मृत्यु के दिन तक मित्रवत बने रहे ।
अरे हाँ, बड़ी अम्मा के आदेशानुसार उन रिश्तेदार को परीक्षाओं के तुरन्त बाद वापस उनके गाँव भेज दिया गया था।
वो भी क्या जमाना था !
और..आज के जमाने में..
बेटे ने पाँच हजार का मोबाइल खो दिया तो..माँ मुस्कुराई और सत्रह हज़ार का नया मोबाइल दिला दिया ... मुझे पता भी नहीं चला ..
हमें अठन्नी पर.. मिली मेरी सजा याद आ गई। काश! मेरी माँ के पास चार अठन्नियां होतीं उसदिन तो शायद मुझे मार न मिलती ..
स्थिति यह है कि.. आज भी.. हमारे सर.. माँ-बाप के चरणों में.. श्रद्धा से झुकते हैं और हम उनकी बातों को तवज़्ज़ो भी देते हैं ..
औऱ हमारे बच्चे.. यार डैडी ! यार मम्मी ! कहकर.. बात करते हैं और हमारी बातों को हवा में उड़ा देते हैं।
हमारे बच्चे प्रगतिशील से.. प्रगतिवान जो हो गये हैं।
कोई लौटा दे.. मेरे बचपन के दिन
शायद मैं कक्षा 5 में पढ़ रहा था । पिताजी की एक परचून की दुकान होती थी उन दिनों । अच्छी खासी बड़ी दुकान थी और वे दिन भर व्यस्त रहते थे ।
एक दिन वे दोपहर में घर आये और स्नान - भोजन के बाद कपड़े पहने और दुकान जाने लगे ।
सहसा उन्हें लगा कि उनकी जेब से कुछ सिक्के नहीं हैं । शायद चार अठन्नियां । उन्होंने माँ से पूछा तो उन्होंने मना कर दिया और यह भी कहा कि उन्होंने ही स्वयं कहीं रख दिया होगा या खो दिया होगा। अब वे तनाव में आ गए । उन्हें तनाव इस बात का था कि कहीं यह निकृष्ट काम उनके ज्येष्ठ पुत्र (मैंने) तो नहीं किया है !
खोजबीन हुई और जब मेरा बस्ता पलटा गया तो उसमें से चारों अठन्नियां खनकती हुई नीचे आ गिरीं ठीक इसी समय पिताकी का क्रोध बहुत तेजी से ऊपर चढ़ गया ।
मैं बाहर नीम के पेड़ के नीचे खेल रहा था। दरवाजे की ओट से माँ ने मुझे बुलाया तो मैं आ गया। पास आते ही उन्होंने डपटते हुआ कहा - क्यों, तूने पैसे चुराए हैं ?
मैंने अनभिज्ञता जताई तो उन्होंने कहा कि पिताजी को पैसे मेरे बस्ते से मिल गए हैं । मैंने पुनः अनभिज्ञता जताई । इस पर माँ ने विश्वास किया और पिताजी के पास आकर कहा कि यह कार्य मैंने नहीं किया है ।
पिताजी ने अंगारा नेत्रों से मुझे देखा और एक जोरदार तमाचा गाल में मारा । प्रहार से मैं ज़मीन में गिर पड़ा किन्तु भय से चीख नहीं सका । मेरी आँखों के सामने अंधेरा छा गया । गाल जल रहा था। मैं सम्भला और गाल को सहलाते हुए उठ बैठा । मेरी आँखों में भय के साथ आँसू थे । इधर उधर देखा तो माँ कहीं नज़र नहीं आईं ।
पिताजी ने कहा - जब तुमने पैसे नहीं चुराए तो तुम्हारे बस्ते में कैसे आये ?
मैंने सुबकते हुए कहा - यह मुझे नहीं पता। मैंने न तो पैसे चुराए और ना ही बस्ते में रखे ।
एक जोरदार तमाचा दूसरे गाल पर पड़ा । मैं फिर से जमीन पर गिर गया । अपनी हथेलियों से दोनों गालों को टटोला तो उंगलियों की छाप महसूस हो रही थी। गाल दबाए उठ ही रहा था कि पिताजी की आवाज सुनाई दी - चोरी की और अब झूठ भी बोल रहा है । यही सिखाया है मैंने ? भई वाह, नेताजी (पिताजी एक प्रतिष्ठित और ईमानदार व्यक्तित्व वाले काँग्रेसी नेता थे) का लड़का चोर और झूठा भी है।
शायद उन्हें चोरी से अधिक अपने विश्वास के छलनी होने का आक्रोश था ।
मैंने उनकी तरफ देखा । नेत्र क्रोध से लाल तो थे किंतु वहाँ अब कुछ आँसू भी थे । मैने कहा - पिताजी, न मैंने पैसे चुराए और न ही झूठ बोल रहा हूँ । मुझे नहीं पता कि यह किसने किया है?
मेरी यह बात पिताजी को मेरी धृष्टता और जबानदराजी लगी । इस बार न केवल मेरी नीम की हरी छड़ी से जमकर सुताई की बल्कि दोनों हाथ बाँधकर धन्नी (छत) से लटका दिया । जाते जाते उस अंधेरे कमरे को बंद कर दिया तथा माँ को शामतक दरवाजा न खोलने की सख्त हिदायत भी देते गए। मुझे इतना ध्यान है कि मैं कुछ देर सिसकता रहा और पैरों के अँगूठे से फर्श को छूने का असफल प्रयास करता रहा और उसी दशा में सो गया ।
जब मुझे होश आया (नींद खुली) तो (स्व.) बड़ी अम्मा (ताई जी, जिन्हें माँ बुलाकर आयी थीं) मेरे हाथों में बंधी रस्सी को खोल रही थीं और रोते रोते पिताजी और एक रिश्तेदार को कोस रही थीं ।
बाद में मुझे पता चला कि पिताजी के जाने बाद बड़ी अम्मा ने अपनी तरफ से जासूसी की और हमारे घर पर रह कर कक्षा आठ में पढ़नेवाले रिश्तेदार (अब वे नहीं हैं इस दुनिया में) को दोषी पाया । रिश्तेदार ने यह कबूल कर लिया कि उन्होंने ही पिताजी के कुर्ते से पैसे निकाले थे और मेरे बस्ते में रख दिये थे। शाम को बड़ी अम्मा ने पिता जी को खूब खरीखोटी सुनाई और वे सिर झुकाए सुनते रहे और आँसू पोंछते रहे।
इस घटना के बाद से मेरे और पिताजी के बीच सम्बन्ध एकदम अटूट और उनकी मृत्यु के दिन तक मित्रवत बने रहे ।
अरे हाँ, बड़ी अम्मा के आदेशानुसार उन रिश्तेदार को परीक्षाओं के तुरन्त बाद वापस उनके गाँव भेज दिया गया था।
वो भी क्या जमाना था !
और..आज के जमाने में..
बेटे ने पाँच हजार का मोबाइल खो दिया तो..माँ मुस्कुराई और सत्रह हज़ार का नया मोबाइल दिला दिया ... मुझे पता भी नहीं चला ..
हमें अठन्नी पर.. मिली मेरी सजा याद आ गई। काश! मेरी माँ के पास चार अठन्नियां होतीं उसदिन तो शायद मुझे मार न मिलती ..
स्थिति यह है कि.. आज भी.. हमारे सर.. माँ-बाप के चरणों में.. श्रद्धा से झुकते हैं और हम उनकी बातों को तवज़्ज़ो भी देते हैं ..
औऱ हमारे बच्चे.. यार डैडी ! यार मम्मी ! कहकर.. बात करते हैं और हमारी बातों को हवा में उड़ा देते हैं।
हमारे बच्चे प्रगतिशील से.. प्रगतिवान जो हो गये हैं।
कोई लौटा दे.. मेरे बचपन के दिन
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