Tuesday, November 6, 2018

बच्ची और रुमाल

उसे देखकर जब
चाँद मुस्कुरा रहा था ...
तभी चाँदनी रात में
एक कुत्ता गुर्रा रहा था
बारम्बार ... लगातार ...
उसे देखकर...
कैक्टस मुस्कुराया ..
और फिर 'जय'
एक नन्हा सा रुमाल ..
उस बच्ची का
कफ़न बना नज़र आया !!

वृद्धावस्था

नदी के बीच मे खड़ा एक दरख़्त ..
   जिसने अनेकों सैलाबों और
      तूफानों को अपनी छाती पर सहा था ..
उसे कल
  एक नन्ही सी लहर ने गिरा दिया ..
     क्योंकि अब वह बूढ़ा जो हो गया था ..

Saturday, October 27, 2018

सच्ची में ..

27-10-2018
आज सौभाग्य-पर्व के उपलक्ष्य पर

सच्ची में ..


आज आप बहुत याद आ रहे हैं ..

यूँ तो हम प्रतिदिन बात करते हैं
घण्टों मोबाइल से 
पर आज की बात कुछ अलग है
सच्ची में ..

आप दिलासा देते हैं मुझे हर त्योहार

घर आने की और हर बार
कोई न कोई अड़चन 
सामने आ जाती और ठिठक जाते हैं 
पैर आपके वहीं पर ...
मेरी आशाओं को कुचल कर
सच्ची में ...

सामाजिक सम्बंधों को निभाते हुए

दिन तो व्यतीत हो जाता है किंतु ..
रात .. रात जिसपे आपका है अधिकार
वह रात .. जो आपके साथ होने पर
शरमाती है, सहमती है, सिसकती है
वही आज मुँह चिढ़ाती है मेरा बार बार
बोलती है, 'क्या यही है तुम्हारा प्यार'
सच्ची में ..

ढलता हुआ चन्द्रमा और खिलता हुआ सूरज

फुसफुसाते रहते हैं प्रायः मुझे देख कर
मैं जानती हूँ कि हँसेगा आज का चंद्र मुझ पर 
साथी सितारे लगाएंगे ठहाके और
आज व्योम में मेरे उपहास का होगा निनाद 
मेरी प्रबल अभिलाषा है 'जय' 
कि साक्षात सामने आकर आप
तिरोहित कर दें ढीठ चन्द्र का उपहास
सच्ची में ..

कभी कभी मैं सोचती हूँ

हाँ .. कभी कभी ही सोचती हूँ
ऐसे ही किसी अवसर पर कि
क्या डॉलर और दीनार ही 
उपलब्धि हैं हमारे वैवाहिक जीवन की !
क्या पैसे की चमक के आगे ..
मेरे यौवन की कांति कुछ भी नहीं !!
दहकते तन में ज्वालामुखी बनी भावनाओं
के लिए क्या मोबाइल ही समाधान है !!!
डर लगता है कभी कभी
सच्ची में ...

Monday, May 7, 2018

पूरक


लहरों से  सजे  सागर का मुख, बदली से  निखरता है सावन
चन्दा से सजता नील गगन, कलियों  से  सजे प्यारा उपवन
यौवन से निखरती है तरुणी,  चंचल  होती है गति  से पवन
दु:खों से मन धरती बनता, वनस्पतियों से 'जय' जल पावन

Wednesday, May 2, 2018

पिछले 80 दिनों की उपलब्धि



नाहक गर्व स्वयं पर करिये, सबल तो समय-परिंदा है
परोपकर से बड़ी खुशी नहिं, दुःख वृहद पर - निंदा है
मेरे संग परिवार खड़ा है, जीवन के इस काल-खंड में
मरा नहीं है अभी भी मित्रों! मत भूलो, 'जय' ज़िंदा है

Tuesday, May 1, 2018

ज़हर

ज़िन्दगी भर इसे पीते, होता न असर देखो
कभी तोला, कभी लोटा, कभी तीनों पहर देखो
अगर रुसवा ये हो जाये, जरा सी बूँद से ही 'जय'
हमारी जान ले लेता, बड़ा बेदर्द ज़हर देखो

सपने

सपने सुहाने देखो और  आँखों में  बसाओ तुम
इन्हें साकार करने का साहस  भी दिखाओ तुम
पंजों के बल खड़े होकर हाथों को उठाओ 'जय'
गगन से तोड़ के इनको कदमों पर बिछाओ तुम

Monday, April 30, 2018

शख्सियत

मैं   देखता  रहा  उस  जनाजे  को  देर  तक
होने को  जा  रही  थी  नष्ट  वही शख्सियत
जिसके नुमाया होने से दुनिया थी मुस्कुरायी
कन्धों पे जा रहा है 'जय' चुपचाप  बेहरकत

नुमाया होने = प्रकट होने/ सामने आने

Sunday, April 29, 2018

फिर से ..

(1)
अब भी हमारी साँसों में एक साँस घुली है
जैसे कि जन्नतों की कोई खिड़की खुली है
मेरे  नसीब में नहीं 'जय' जिसकी  यारियाँ
कुदरत उसी से आज मिलाने को तुली है 

(2)
'जय' वो हमारे  जिगरोदिल टटोल रहे हैं
जबरन  हमारे  बोल  हमसे  बोल  रहे हैं
बेशर्त  हमने  चाहा  था उन्हें टूट टूट कर
वो मेरा दिल कभी तो अपना तौल रहे हैं

फलसफा

जब भी हकीकतों से हुआ दूर है कोई
ना जाने कैसे  हो  गया मशहूर है कोई
फलसफा हमें भी तो समझोगे ये 'जय'
नज़दीक हम चले तो चला दूर है कोई

Saturday, April 28, 2018

चन्दा है जामुनी



पिघली है चाँदनी, चलो कुछ बात करें हम
मौसम न फागुनी, चलो कुछ बात करें हम
जीवन में ऐसे रंग क्यों उभरे न आज तक
चन्दा है जामुनी, चलो 'जय' बात करें हम

माँ

कोई जाता अयोध्या को, कोई जाता है मथुरा को

कोई काशी चला जाता, कोई  जाता है कटरा को

कोई जाता है चारों धाम, कोई दक्षिण चला जाता

घरों  में  बन्द 'जय' ईश्वर, अगर  देखें स्वयं माँ को

Thursday, April 26, 2018

बंदिश बनाम उसूल

तुम्हारा अपनी बंदिश से निकल पाना बहुत मुश्किल

हमारा  खुद  उसूलों  से   उबर   पाना   नहीं   आसां 

तुम अपने घर से निकलो तो मन्दिर तक हम आएंगे

अकेला 'जय' लड़े  जग  से,  इतना  भी  नहीं  नादां 

Wednesday, April 25, 2018

पहाड़ की शाम

पहाड़ की चोटियों पर फैला सुनहरा उजाला सूरज के ढलने का उदघोष करने लगा है ।

पक्षियों ने पंख फैलाये और नीड़ की तरफ उड़ चले हैं। कोयल की कूक में व्यग्रता सी है। बाजारों में चहल पहल बढ़ गयी है । होटल के काउंटर ओर भीड़ बढ़ने लगी हैं। टैक्सी स्टैंड पर जमावड़ा बढ़ गया है। सचमुच में शाम ढलने लगी है।

झील के पास की हवा अब और अधिक ठण्डी हो गयी है। ढलान पर पैदल चल रहीं नवविहिताएँ अपने साथी के कंधों पर सिर टिकाए हैं और बाँह से उसकी कमर को जकड़े हुए हैं। सचमुच में पहाड़ों पर शाम आने को है।

चढ़ती सड़क पर जोड़े एक दूसरे को हाथों से थामे हुए बोझिल कदमों से बढ़ रहे हैं । ऐसा लग रहा है जैसे पुरुष जबरदस्ती महिला साथी को घसीट कर ले जाना चाहता है । सचमुच में कुछ देर के बाद एक और मदमस्त शाम आने ही वाली है।

झील के पास बनी बड़ी मस्जिद से आनेवाली अजान की आवाज यह घोषित कर रही है कि अगले कुछ मिनटों में सूर्यास्त होने वाला है।

घने पहाड़ों के बीच बीच में झाँकती विरली इमारतें पर्यावरण को चुनौती देती हुई प्रतीत हो रही हैं । इसका प्रमाण है झील की पूर्व दिशा पर लगातार हुए भूक्षरण और भूस्खलन से नङ्गी हो चुकी चोटियाँ और इन्ही स्थलों पर चमकती ढलते सूरज की सुनहरी धूप सभी आनेजाने वालों से इस सुरम्य घाटी के पर्यावरण को बचाये रखने का अनुरोध कर रही है।

अब प्रकाश के सुनहरेपन को अँधेरा ढकने लगा है । कृतिम प्रकाश दीप जलने लगे हैं । झील एक बार फिर से गूँगी हो चली है। स्वल्पाहार केंद्रों और भोजनालयों पर सैलानी प्रतीक्षरत हैं । मालरोड गुलजार हो चला है। सड़कों पर आवागमन बढ़ रहा है।

अधिकतर लोगों ने ऊनी वस्त्र पहन रखे हैं। झील के पार्क में बनी हट्स और कुर्सियों पर जनसामान्य से बेखबर अभी भी कई जोड़े एक दूसरे से सटे, कन्धों पर सिर रखे और कमर पर बाजुएँ लपेटे भविष्य के तानेबाने बुन रहे हैं। वातावरण में ठण्डक बढ़ रही है किंतु जोड़े इसे महसूस नहीं कर रहे हैं और इस उम्र में करना भी नहीं चाहिए।

रात में आये गाँव के दो नवविवाहित जोड़े आज सुबह होटल में गर्मजोशी से मिले । लड़कों और बहुओं ने आगे बढ़कर चरणस्पर्श किया और आशीर्वाद लिया । मुझे बहुत अच्छा लगा। घर से सैकड़ों मील दूर ऐसी आत्मीयता और सम्मान मिले तो दिल भर आता है और कण्ठ अवरुद्ध हो जाता है।

भान्जे द्वारा होटल व्यवस्था और बेटे द्वारा यात्रा खर्च की व्यवस्था ... आखिर फक्कड़ 'जय' को घुमक्कड़ बनना ही पड़ा ।

अलसायी सी सुबह

सुबह अचानक नींद खुली और दरवाजा खोला तो सूरज की पहली किरण को सुनहरी साड़ी में सामने खड़ा पाया जो मुस्कुरा कर सुबह के दृश्य देखने का संकेत कर रही है। उनींदी आँखों से देखा तो चीड़ की झुकी डाल पर बैठी एक चिड़िया सुमधुर पहाड़ी धुन सुना रही है । ढलानदार शान्त सड़क अँगड़ाई ले रही है। नैना झील हल्की धुँध की चादर में लिपटी अपनी आँखे मसलती हुई दिखी । धुंध में डूबी पहाड़ की चोटियाँ सूरज का अभिनन्दन कर रही हैं । सभी कुछ अलसाया सा है सिवाय एक आवाज़ के जो होटल के बगल में बने बच्चों के स्कूल से आ रही है । सुबह की प्रार्थना के सम्मिलित स्वर यह बता रहे हैं कि अब हमारे आलस्य त्यागने का समय आ चुका है ।

नैनीताल में एक नई सुबह का स्वागत है ।

'जय' हो नैना देवी की ।

Tuesday, April 24, 2018

मेरी नैनीताल यात्रा - वो भूली दास्ताँ लो फिर याद आ गयी

मेरी नैनीताल यात्रा
वो भूली दास्ताँ लो फिर याद आ गयी

ये रानीबाग है, 
कभी एचएमटी घड़ियों का कारखाना होता था यहाँ
किन्तु अब शेष हैं कुछ निशानियाँ  
बुज़ुर्गों की जुबानी कुछ कहानियाँ
यहाँ से शुरू होता है इक सर्पिणी सी सड़क का एक छोर
यहीं है मचलती, मटकती, बहकती हुई गाड़ियों का 
शोर
एक तरफ ऊँचे ऊँचे कंगूरे तो 
दूसरी तरफ बहुत गहरी ढलान
कंगूरों में हैं चीड़ और सागौन 
तो ढलानों में फिसलन और चट्टान
एक के पीछे दूसरी चढ़ती गाड़ी 
तो सामने से आ रहा बलखाता वाहन
कहीं कहीं चोटी से गिरता पतला झरना 
तो बीच बीच में घना वन
यह तल्लीताल है और यही है 
सुरम्य नैनीताल का सिंह-द्वार
यहीं है बसअड्डा, टैक्सी स्टैंड 
व मालरोड पे सैलानियों की भरमार 
कहाँ कानपुर की वह इकतालीस डिग्री की गर्मी 
यहाँ शाम के धुँधलके के साथ उतरती गुलाबी सर्दी
अथाह झील में दिख रहीं हैं 
अनेकों रंग बिरंगी नौकाएं
कुछ में जोड़े, कुछ में परिवार,
 कुछ में युवा, कुछ में बालाएं
कहीं हैं उँगलियों में उँगलियाँ फँसाये 
मदमस्त हनीमून कपल 
कुछ परिवारों के मुखिया खोज रहें हैं 
उनके गुजरे एकांत वे पल
झील की नौकाएं, रोपवे की ट्रालियाँ 
अचानक यादों में छा गयी
तीस साल पुरानी 'जय', 
वो भूली दास्ताँ लो फिर याद आ गयी

मेरी नैनीताल यात्रा - गरीब रथ

मेरी नैनीताल यात्रा - गरीब रथ

विशाल पुल के नीचे सिकुड़ी, सिमटी, लाजवन्ती सी गंगा
मटमैले-काले पानी में स्नान-आचमन करते भक्त व पण्डा
आँखे बंद कर धीरे धीरे सरकती हुई गरीब रथ ।।

कानपुर से ही एक माल गाड़ी के पीछे सरकती हुई सवारी गाड़ियाँ
साथ में बैठे ढेरों पुलिस वालों के मुँह से छूटती अश्रवणीय गालियाँ
सिसकते हुए धीरे धीरे सरकती हुई गरीब रथ ।।

सिर्फ माँ को ही कहा जाता है इस प्रकृति का जीवित भगवान 
इसी भगवान के लिए हमने ही बोली हैं सर्वाधिक गन्दी जुबान
शर्मिंदा होकर धीरे धीरे सरकती हुई गरीब रथ ।।

यह लखनऊ का सवेरा है, यहाँ पर पक्षियों का डेरा है
छोटी बड़ी हजारों चिड़ियों का प्लेटफ़ॉर्म में ही बसेरा है
गुनगुनाते किन्तु धीरे धीरे सरकती हुई गरीब रथ ।।

गाड़ी कानपुर से एक घण्टा किन्तु अब समय से 2 घण्टे पीछे है
लेकिन बरेली के बाद इसका इंजन गाड़ी को ताबड़तोड़ घसीटे है
हाँफती और अब सरपट चलती हुई गरीब रथ ।।

काठगोदाम आ गया, गाड़ी का अंतिम विश्राम - स्थल
नैनीताल चलने की मनुहार करते टैक्सी चालकों का दल
मुस्कुराती, यात्रियों को बाय करती हुई गरीब रथ।।

Monday, April 23, 2018

दृढ़ निश्चय

भानु के शोलों से तपते पत्थरों की छातियों में, 
बीज हम बोते रहे

सागरों की चीख और कहकहे इन आँधियों के, 
रात भर होते रहे

ठान ही हमने लिया जब मेघ, सूरज, तारे, 
चन्दा क्या करें तब ?

बिजलियों के बिस्तरे, नम मेघों की चादर तले, 
'जय' बेधड़क सोते रहे

आत्मबल

मैं मनुज हूँ, मनुजता को  आज भी सहला रहा  हूँ 
इस जगत के एक ही सच, मृत्यु को बहला रहा हूँ 
'जय' स्वयं  को  दर्पणों के बीच रख कर कह रहा 
न  डरा  हूँ, न  गिरा  हूँ, ना  ही  मैं  घबरा  रहा  हूँ

करवट

है नेकी जो भी ज़माने में, था उन्हीं  का हुक्मरां मैं
दोस्तों की  जुबानी में, प्रकृति  का था कहकशां मैं
समय ने  करवटें  बदली, हवा भी रुख बदल बैठी
'जय' अपनी उम्मीदों का, रुका सा अब कारवाँ मैं

हुक्मरां - शासक
कहकशां - कहकहा

Sunday, April 22, 2018

नियति

मैं पूर्णिमा का चन्द्र बन चमकता रहा रात्रि भर 

अमावस की रात 'जय' जुगनू भी न मिले मुझे

उलझन








उन्हें होंठों का तिल लगता बहुत प्यारा, बहुत न्यारा
किसी का साँवला रंग हो तो उन्हें लगता नहीं प्यारा
नयन ही हैं जो आकर्षण के जालों  को स्वयं बुनते, 
स्वयं ही 'जय' उलझते और स्वयं बन  जाते बेचारा

Saturday, April 21, 2018

तीन छणिकाएँ

तीन छणिकाएँ 

( 1 )
उखड़ी हुयी हैं साँसे, है जकड़ा हुआ शरीर 
बदले हालात में 'जय' है अकड़ा हुआ ज़मीर 

( 2 )
कुछ ख्वाब उड़ चले हैं, साँसों के आसमां पर
मंज़िल कहाँ, किधर 'जय' तय है दुआ हवा पर

( 3 )
छेड़छाड़ और बलात्कार के मसले आँखों और ज़ेहन में ही होते हैं 
वरना वही कपडे और वही अंग खुद की बेटी-बहन के भी होते हैं ||

मुंशी धुन्नीराम


मुंशी धुन्नीराम

वर्ष 1973 की सर्दियों का समय था. हम कक्षा पाँच में पढ़ रहे थे. हमारी वार्षिक परीक्षाएँ होली के बाद होने वाली थीं और विशेष बात यह थी कि ये बोर्ड परीक्षाएँ थीं. हम सभी पहली बार बोर्ड का नाम सुन रहे थे. अध्यापकों द्वारा हमें लगातार किसी दूसरे विद्यालय में जाकर कैसे परीक्षा देनी है यह बताया जा रहा था. एक अदृश्य भय था जो हम सभी के मन में समाया हुआ था.

इसी दौरान हमारी पाठशाला के प्रधानाचार्य त्रिपाठी जी सेवानिवृत्त हो चुके थे और कुछ महीनों के बाद नए प्रधानाचार्य धुन्नीराम जी नियुक्त हुए थे. औसत कद काठी के धुन्नीराम जी गाढ़े साँवले रंग के थे. वे झक्क सफेद धोती, कुर्ता और गांधी टोपी पहनते थे. उनके हाथ में सदैव एक छड़ी रहती थी. ज़रा सी गलती या अनुशासनहीनता पर हथेलियाँ लाल कर देते थे. कुछ ही दिनों में छात्रों के बीच में वे एक कड़क मुंशी जी के नाम से मशहूर हो गए थे.

आसपास के गांवों से आनेवाले  कुल जमा बीस छात्रों का बैच था इसबार कक्षा पाँच में. जिसमे तीन लडकियां और शेष लड़के . छमाही की परीक्षाओं में हम सभी बुरी तरह फेल हुए थे क्योंकि पाठ्यक्रम ही पूरा नहीं हो सका था. छमाही के बाद धुन्नीराम जी ने अन्य दो अध्यापकों ( पहले अध्यापक कक्षा एक और दो को पढ़ाते थे जबकि दूसरे  अध्यापक कक्षा तीन और चार को पढ़ाते थे और प्रधानाचार्य कक्षा पाँच को पढ़ाने के साथ अन्य प्रशासनिक कार्य करते थे) सम्पर्क करके एक समाधान खोजा . समाधान यह कि यदि सभी छात्रों से  मिटटी के तेल (केरोसिन आयल) केलिए कुछ पैसे एकत्र  कर लिए जाएँ तो (पड़ोस में बने जूनियर हाई स्कूल की तर्ज पर) रात्रिकालीन कक्षाएं आरम्भ करके पाठ्यक्रम पूरा करा दिया जाए. अब हम सभी को बताया गया कि सभी लोग पाँच पाँच रूपये मिटटी के तेल के लिए जमा कर दें और जब बताया जाए तब से खाना खाकर रात आठ बजे तक स्कूल आ जाएँ. रात बारह बजे तक पढ़ाई होगी फिर सभी सो जाएँगे और तड़के छह बजे सब अपने अपने घर चल जायेंगे ताकि तैयार होकर पाठशाला आ सकें. रात में सभी को दरी रजाई भी लानी थी. लड़कियों के लिए रात की कक्षाओं में आना मना था.

कुछ ही दिनों में लगभग दस - ग्यारह छात्रों ने पाँच पाँच रूपये जमा करा दिये. एक हफ्ते बाद हमें रात में आने के लिए कह दिया गया. मैं अपने चचेरे भाइयों भानु, बाबू, बच्चा, पप्पू आदि के साथ गाँव के कुछ और बच्चों कल्लू, मुन्ना, डीवी आदि के साथ  दरी रजाई और  पुस्तकों से भरे बस्ते को लाद कर स्कूल पहुँच गया . उम्र में छोटा होने के कारण मेरी देख रेख का जिम्मा पिताजी ने चचेरे भाइयों पर डाल दिया था.

पहले एक हफ्ते तक प्रतिदिन यही कोई दो तीन घंटों में पढ़ाई हुई. प्रकाश के केरोसिन भरी तीन चार  बोतलें जलती थीं किन्तु उसका धुआँ भी भर जाता था . यद्पि कक्षा में चार बड़ी बड़ी खिड़कियाँ थीं किन्तु रात की सरसराती हवाओं के कारण बंद रहती थीं. धुन्नीराम जी की कड़ाई से कक्षा में जो शैतानियाँ बंद हो गयीं थीं वे अब रात में अंकुरित होने लगीं थी. कक्षा में कोई भी शैतानी करें लेकिन उँगली भानु और कल्लू पर भी उठती थी. इस बात से ये दोनों कुछ परेशान हो गए थे. अब रात की कक्षाओं में इन दोनों ने इसका बदला लेने का उपाय सोचा.

जैसे ही रात की पढ़ाई समाप्त होती, एक दिए के अलावा सभी दिए बुझा दिए जाते थे. हम सभी फर्श पर अपनी अपनी दरियों पर सो जाते और धुन्नीराम जी इसी कक्ष में अपनी मेज के बगल में एक चारपाई डाल कर सोते थे. जलता हुआ दिया उनकी मेज पर ही रहता था.  अब सर्वप्रथम उस दिए को बुझाया जाता और फिर सोते हुए धुन्नीराम जी के ऊपर दो चार घूँसे थप्पड़ मारे जाते. इन दोनों कार्यों में एक कार्य भानु और दूसरा कल्लू करते थे.  अगले दो दिनों तक जब मास्साब ने इस विषय में न तो किसी अध्यापक को बताया और न ही किसी छात्र से पूछताछ किया तो लगा कि धुन्नीराम जी डर गए हैं . यद्यपि प्रतिदिन कक्षा में उनकी खोजी निगाहें कुछ न खोजती रहती थीं किन्तु वे किसी के चेहरे भाव कोई संकेत नहीं पा सके. इसका कारण यह था कि जुगल जोड़ी ने इस कार्य को दो तीन विश्वस्त छात्रों से ही साझा किया था वह भी इस हिदायत के साथ कि यदि इस बात की जानकारी मासाब को हुई तो जितने डंडे वे मारेंगे उसके दसगुने डंडे उन विश्वस्त छात्रों को भी पड़ेंगे.

आत्मविश्वास ने गड़बड़ कर दी. उस दिन कल्लू को किसी बात को लेकर धुन्नीराम जी ने दो चार डंडे मार दिए थे. बस जुगुल जोड़ी के बीच दिनभर योजनायें बनती रहीं कि आज राज रात में क्या करना है . यद्यपि भानु ने आज कुछ भी करने को मना किया क्योंकि इससे मास्साब को शक हो जाएगा किन्तु कल्लू का पारा अभी भी आसमान पर उड़ रहा था. कल्लू ने भानु को दोस्ती का वास्ता दिया और साथ देने को कहा.  शाम ढली और रात आयी. निर्धारित समय पर सभी विद्यालय पहुँच गए. रात की पढ़ाई चालु हो गयी किन्तु आज कल्लू को एक अक्षर भी समझ में नहीं आया . उसकी आँखों में यह जलते दिए बहुत अखर रहे थे आज. खैर राम राम करते वह घड़ी भी आयी जब एक अकेला दिया मास्साब की मेज पर जल रहा था.

जैसे ही धुन्नीराम जी के खर्राटे सुनाई पड़े, भानु ने घुटनों के बल धीरे धीरे चलते हुए मेज के पास जाकर जलता दिया बुझा दिया और तेजी से चलकर  अपने स्थान पर लेट गए. अब कल्लू की बारी थी मास्साब को सबक सिखाने की. कल्लू भी घुटनों के बल रेंगते हुए मास्साब चारपाई तक पहुँच एक हाथ से मास्साब के चमरौधा जूते को उठाकर उसी से बहुत तेजी से पाँच छह प्रहार उनके सिर पर कर दिया. और फिर तेजी से रेंगकर अपने स्थान पर लेट गए. भानु ने फुसफुसाते हुए पूछा - अब तो खुश ?

कल्लू - अरे नहीं भाई ! आज एक बार और मारब .
भानु - अरे नहीं नहीं... ऐसा न करो .. कल फिर देखा जाएगा ..
कल्लू - न भाई ! चैन तबहीं अइहै  जब एक बार और मारि लेइब ..
भानु - सोच लो ..आज हो गया .. कल फिर हउका जाइ ..
कल्लू - अच्छा रुको .. हम अबहीं निबटा के आय रहे हन ..
और वह एक बार फिर से धीरे धीरे रेंग कर धुन्नीराम जी की चारपाई तक पहुँच गए इस बात से बेखबर कि मास्साब उठकर बैठ गए हैं और वे अँधेरे में आँख फाड़ कर किसी हरकत का पीछा कर रहे हैं. दरअसल वे मुँह खोलकर सोते थे और थोड़ीदेर पहले किया गया प्रहार उन्हें बहुत कस कर लगा था. वे तिलमिलाकर बैठ गए थे. जैसे ही उन्हें लगा कि कोई इधर ही आ रहा है, उन्होंने अपने दोनों जूते नीचे से उठा लिए थे. उन्हें आभास हुआ कि कोई है जो नीचे कुछ खोज रहा है तभी उन्होंने जूता पकडे हुए एक हाथ को उठाकर अपनी भरपूर ताकत से प्रहार किया जो किसी की पीठ से टकराई. प्रहार के साथ ही मास्साब ने उद्घोष किया .... "वो मारा" . प्रहार से प्रतिपक्षी की हल्की सी चीख निकल गई किन्तु वह इतनी अस्पष्ट थी कि मास्साब पहचान नहीं पाए. उन्होंने धड़कते दिल से (बाद में पता चला कि मास्साब बहुत बड़े डरपोक थे) दिया जलाया और भानु और कल्लू नज़दीक से जाकर देखा .. वे दोनों निधड़क मुँह फैलाये सो रहे थे. दो बार देखा .. किन्तु वे दोनों सोते ही रहे. मास्साब ने धीरे धीरे सभी छात्रों के चेहरे देखे किन्तु उन्हें निराशा ही हाथ लगी. . सभी सो रहे थे. उन्होंने दरवाजे को देखा .. वह अंदर से बंद था...तब उन्होंने कपाट-रहित द्वार से कक्षा चार में प्रवेश किया .. वहाँ भी सन्नाटा था और उसके दरवाजे भी अंदर से बंद थे.

अब तो मास्साब को जाड़े में भी पसीना आ गया .. उन्हें इतना तो सुनिश्चित लगा कि उन्होंने किसी के शरीर पर ही प्रहार किया था और हल्की सी चीख भी निकली थी .. पर वह था कौन !! इस प्रश्न ने उनकी नींद उड़ा दी थी. खैर वे लेट गए और रजाई को सर से खींच लिया . लेटने से पहले उन्होंने जूतों को चारपाई के पैताने की तरफ बिस्तर के नीचे रख लिया था. कुछ पलों के बाद कक्षा में उनके खर्राटे गूँजने लगे.

अगले दिन कक्षा में धुन्नीराम जी ने कल्लू और भानु को छोड़ कर अन्य सभी रात्रिकालीन विद्यार्थियों से रात की घटना के विषय में घुमाफिरा और बहला फुसला कर पूछा किन्तु नतीजा ढाक के वही तीन पात रहा .. अंत में उन्होंने कल्लू और भानु को बारी बारी से कार्यालय में बुलाकर एकांत में पूछा .. डराया ..किन्तु वे दोनों अनजान बने रहे .. न मुस्कुराहट उभरी न डर उभरा . उलटे उनदोनों में मास्साब से ही पूछा कि वस्तुतः रात में हुआ क्या था. इस पर मास्साब ने उन्हें बताया कि किसी ने उनकी चारपाई को जोर से हिलाया था. .. इस पर भी दोनों को हँसी नहीं आयी और वे दोनों भी निर्दोष साबित हुए. अब मास्साब ने इन दोनों से ही कह दिया कि वे ही पता लगाएं कि किस लड़के ने यह कार्य किया है .  दोनों ने हामी भर दी.     

यह रात बिना किसी उपद्रव के गुजर गयी. तड़के जलता हुआ दीपक देख कर मास्साब के माथे की लकीरें कम हुईं थी. अगली रात रात्रिकालीन पढ़ाई की अंतिम रात्रि साबित हुयी. उस रात की सुबह मास्साब स्कूल में नहीं नज़र आये तो हम सभी हैरान हुए. कार्यालय बंद था किन्तु उसके अंदर रखी रहने वाली मास्साब की साइकिल नहीं थी. कयास लगाया गया कि धुन्नीराम जी पाँच छह  किलोमीटर दूर अपने गाँव चले गए होंगे .

लगभग बारह बजे मास्साब की साइकिल सड़क से स्कूल की तरफ मुड़ती दिखी .. यह हम सबने कक्षा की खिड़कियों से देख लिया था. आते ही उन्होंने कार्यालय में अन्य दोनों अध्यापकों को बुलाया था. कुछ देर विचार विमर्श किया और फिर तीनों कक्षा पाँच में आये. दीक्षित जी ने भेदी नज़रों से हम सभी को देखा और कुछ खोजने का प्रयत्न करते रहे. असफल रहने पर वे कक्षा तीन-चार की तरफ निकल गए. अब बजरंगबली जी ने हम सभी को अपनी आदत के अनुसार हँसते हुए देखा . बार बार देखा .. कल्लू और भानु को देखते हुए पलकों को उठाया गिराया किन्तु दोनों के भाव एक जैसे ही रहे .. फिर वे भी कक्षा एक-दो की तरफ चले गए. अब धुन्नीराम जी का माथा सटक गया . उन्होंने मोटा रूल निकाला और रात में पढ़नेवाले सभी लड़कों की हथेलियों में चार चार रसीद किये. वे हांफने लगे और अपनी कुर्सी पर बैठ गए.

शाम को जब हम अपने घर पहुँचे तब हमें असली बात का पता चला .. बजरंगबली जी ने पिताजी को बताया था कि रात में किसी बच्चे ने धुन्नीराम जी के जूतों में सु-सु ( यहाँ पर सु-सु ही लिखूँगा क्योंकि किया तो कुछ और ही था )  कर दिया था  . सुबह उठने पर जैसे ही जूतों में उन्होंने पैर डाले तो सन गए. उसी समय वे अपने घर चले गए और फिर इत्मीनान से नहा धोकर और कपड़े जूते बदल कर आये. पिता जी ने जब मुझसे पूछा  तब मैंने ऐसी किसी घटना की जानकारी से इंकार कर दिया .. उन्होंने मेरी आँखें देखी और वहाँ आँसू देख कर सहज ही स्वीकार कर लिया. एक गुरु के साथ किये गए ऐसे आचरण के लिए उन्होंने हमें डाँटा और शिकायत मिलने या इन पापों में सम्मिलित पाए जाने पर हमारी दुर्गति करने का विश्वास भी दिलाया.  

इस घटना के बहुत दिनों के बाद पता चला कि यह कार्य बाबू ने किया था.

पाँचवीं की बोर्ड परीक्षाओं में इस पाप का घातक असर अगली बार .. 'जय' हो.

Thursday, April 19, 2018

पाँच प्रश्न और कक्षोन्नति


पाँच प्रश्न और कक्षोन्नति

हमारे पडोसी गाँव से पंडित राम भरोसे दीक्षित बचपन में हमें प्रारम्भिक शिक्षा देने के लिए आते थे. शाम को पाँच बजे वे आते और बाहर छप्पर के नीचे पड़े तख़्त पर बैठ कर एक हाँक लगाते : चलौ रे . और हम जहाँ भी होते अपना अपना बस्ता पाटी लेकर भागते हुए उनके पास आते और डरते डरते पंडित जी के पैर छूकर आशीर्वाद लेते और बैठ जाते पढ़ने के लिए . डरते डरते इसलिए क्योंकि उनके हाथों में एक बहुत पतली दातून जैसी पतली सटकी सदैव रहती थी और कभी भी किसी की पीठ पर बज सकती थी. इससे भी खतरनाक होता था उनका हमारे पेट में चुटकी काटना. चुटकी का दर्द तो सहन हो जाता था किन्तु जब वे हमारे पेट की खाल को अपने अंगूठे और तर्जनी उँगली के बीच में दबाकर हलके से रगड़ते थी .. उफ़ वह पीड़ा बस दइया .. दइया करके ही मिटटी थी. उफ़ .. आज भी रोंयें खड़े हो गए हैं उस चुटकी की पीड़ा को याद करके .. प्रभु पडित जी की आत्मा को अपने चरणों में स्थान दें.
 
हम पाँच छह चचेरे भाई उनसे पढ़ते थे जिनमे कक्षा एक से लेकर कक्षा तीन तक के विद्यार्थी होते थे. मैं गाँव की प्राथमिक पाठशाला में कक्षा एक का विद्यार्थी था जबकि अन्य सभी भाई बंधु पड़ोसी गाँव के प्राथमिक पाठशाला में पढ़ते थे. गाँव की पाठशाला में बहनजी बढ़ाती थीं जबकि पड़ोसी गाँव की पाठशाला में मास्साब पढ़ाते थे. पिताजी ने निर्णय लिया कि मुझे अब पड़ोस की पाठशाला में पढ़ाया जाय. इसके लिए उन्होंने पडित जी को हिदायत दी कि मुझे  पाठशाला में प्रवेश के लिए अर्ह शैक्षिक योग्यता के अनुरूप शिक्षित किया जाए ... बस होगई गड़बड़ .. जहाँ सभी भाई बंधु गर्मी की पूरी छुट्टियों में अमिया- आम, महुआ-गुल्लू, गुलहर और चड़ढीमार में व्यस्त रहे वहीं पंडित जी मुझे प्रतिदिन शाम को दो घंटे पढ़ाते और बहुत सा गृहकार्य भी दे जाते जिसमे लिखित कार्य भी था और याद करने वाला कार्य भी होता था. सुबह से शाम तक पिताजी का पहरा और शाम को पंडित जी का दरबार ... अज़ब सी ज़िंदगी थी उन दिनों में .. सांसत ही सांसत ..

जैसे तैसे जून 1971 के अंतिम दिन आये तो पंडित जी ने एक बार सभी पढ़ाई की पुनरावृत्ति करना आरम्भ किया .. एक से सौ तक की गिनती . गिनती में उन्तालीस, उनचास, उनसठ, उनहत्तर, उन्यासी और नवासी को शाब्दिक रूप से जानना और लिखना. एक से पच्चीस तक का पहाड़ा. सत्रह, अट्ठारह, उन्नीस और तेईस का विशेष रूप से याद कराना, ड्योडा और ढैया भी याद कराना . महाभारत और रामायण में उल्लिखित कठिनतम हिंदी शब्दों को बारम्बार लिखना. दोनों ग्रंथों की मूल कथा और इसके चरित्रों को स्मृत रखना. गीता के ग्यारह श्लोंकों की हिंदी अच्छे से स्मृत करना ... और भी बहुत कुछ ... आखिर उन्हें अपने एक शिष्य को विद्यालय में प्रवेश जो कराना था .. और इसी के साथ उन्हें अपनी योग्यता का परिचय भी कराना था ताकि नए सत्र में कुछ और विद्यार्थी उनके दरबार में शामिल हो सकें.

अंततः विद्यालय खुलने के दो तीन दिनों के बाद ही मैं पंडित जी के पीछे पीछे दो फर्लांग की दूरी पर स्थित पड़ोसी गाँव की पाठशाला की तरफ बढ़ रहा था. रास्ते भर उन्होंने मुझे धमकाया कि वहाँ किसी भी प्रश्न में यदि मैं अनुत्तरित रह गया तो वे मेरी चमड़ी खींच देंगे. ..

नई पाठशाला . नए छात्र . नया वातावरण और नए अध्यापक. नज़रें घुमाई तो मुझे कक्षा दो और तीन में हमारे कुछ भाई बंधु बैठे और मुस्कुराते हुए नज़र आ गए. मन को कुछ तसल्ली हुयी ..
तभी पंडित मुझे लेकर कक्षा पाँच में पढ़ा रहे प्रधानाचार्य के पास मुझे खड़ा कर के बोले - त्रिपाठी जी, यह नेता जी का लड़का है. शिष्ट और होनहार है . इसका प्रवेश कक्षा तीन में कराना है.

त्रिपाठजी बोले - ठीक है टी सी कहाँ है ?
पंडित जी ने कुर्ते की जेब से टी सी निकाल त्रिपाठी जी को सौंप दी. त्रिपाठी जी ने ऐनक के पीछे से उसे खँगाला और बोले - पंडित जी, आप भी सुबह सुबह परिहास करने चले आये ?
पंडित जी - त्रिपाठी जी, परिहास कैसा ..
त्रिपाठी जी - भाई यह तो कक्षा एक की टी सी है और आप प्रवेश कक्षा तीन में कराना चाह रहे हैं .. कैसे संभव है ?
पंडित जी - आप छात्र की परिक्षा ले लें यदि यह कक्षा तीन में पढ़ने के योग्य हो तब तो कर लेंगे. ..
त्रिपाठी जी - योग्यता होना अलग बात है किन्तु टी सी के अनुसार हम इसे कक्षा तीन में प्रवेश नहीं दे सकते हैं. . और हाँ योग्यता होने पर भी हम सीधे कक्षा में प्रवेश नहीं कर सकते हैं ..
पंडित जी तनिक पसोपेश में पड़ गए . उनके माथे से पसीना छलछला आया .. अंगौछे से माथा पोछते हुए वे अपने अस्त्र शस्त्र फेंकते हुए बोले - त्रिपाठी जी, कोई रास्ता तो निकालिये अन्यथा मेरी शाख को बहुत ठेस पहुँचेगी और चार पैसे की आमदनी बंद हो जाएगी ..

त्रिपाठी जी कुछ देर अपने नेत्र बंद करके जीनियस फाउंटेन पेन से अपने माथे के मध्यभाग को  ठोकते रहे और मस्तिष्क के किसी कोने में सोई पडी किसी कारगर युक्ति को जगा कर बाहर लाने का प्रयत्न करते रहे. बड़ी आशा से पंडित जी उनकी तरफ देखते रहे. इस बीच कक्षा पाँच में बैठे मैं अपने चचेरे भाई से नज़रें चार करता रहा और आँखों आखों में वार्तालाप भी करता रहा.

कुछ पलों के बाद त्रिपाठी जी ने कहा - भई पंडित जी, अफ़सोस है कि कोई राह नहीं दिख रही है सिवाय एक के ..
पंडित जी (तनिक बुझे मन से) - बताएं महोदय, क्या युक्ति सूझी है ..
त्रिपाठी जी - समाधान बहुत सीधा और तार्किक भी है. हम  टी सी के अनुसार  इसका प्रवेश कक्षा दो में कर रहे हैं. अभी हम इसके बुद्धि  कौशल का परीक्षण कर लेते हैं . यदि हमें लगा कि यह कक्षा तीन के योग्य विद्यार्थी है तो नवंबर में होने वाली छमाही परीक्षाओं के बाद इसे कक्षा तीन की कक्षोन्नति दे देंगे.    
असहाय पंडित जी ने स्वीकृति दे दी और कहा - ठीक है त्रिपाठी जी, जैसा आप उचित समझें. अब आप इसकी बौद्धिक परीक्षा भी ले लीजिये .
त्रिपाठी जी मुस्कुकाते हुए बोले- इसके लिए आपको कुछ पलों के लिए यहाँ से हटना पड़ेगा पंडित जी, ताकि उत्तर किसी भी प्रकार से प्रभावित न हो . आप बाहर नीम के पेड़ के पास पड़ी कुर्सियों में बैठिये . यह छात्र अभी आपके पास आ जाएगा .
पंडित जी ने आँखों ही आँखों में एक बार फिर से मुझे धमकाया और बाहर निकल गए .

त्रिपाठी जी ने अब पहली बार मेरा एक्सरे किया और सामने बैठे छात्र से किसी कॉपी के बीच से दो पन्ने निकाल कर देने को कहा.
अब उन्होंने में अपनी मेज के समीप बुला कर सामने खड़े होने को कहा . मेज पर कागज़ फैला कर मुझे अपना फाउंटेन पेन दिया और एक छात्र को कक्षा तीन के एक छात्र का नाम लेते हुए कहा - रवींद्र को कॉपी पेन के साथ बुला लाओ .

रवींद्र के आने पर उन्होंने उसे नीचे बैठ कर कॉपी खोलने को कहा . फिर वे मुझसे और रवींद्र से बोले - अब मैं जो प्रश्न बोलूं   उसका उत्तर  तुम दोनों को लिखना है . ठीक है .. समझ गए ..
हम दोनों ने हामी भरी तो वे बोले - लिखो (प्रश्न संख्या एक):
 युधिष्ठिर , प्रतिस्पर्धा, उज्ज्वल, किंकर्तव्यविमूढ़, धृष्टद्युम्न . लिख लिया.

हम दोनों ने फिर से हामी भरी तो त्रिपाठी जी आगे बोले - अब जो मैं बोल रहा हूँ वह गिनती लिखो (प्रश्न संख्या दो) : 
उनचालीस, उनसठ, नवासी, उन्यासी, उनचासी .. लिख लिया ..

रवींद्र ने हाँ बोला किन्तु मैं चुप था . उन्होंने कहा - क्या बात है? मैंने कहा - मुझे एक नहीं आ रहा है . उन्होंने कहा - तो उसे छोड़ दो और आगे लिखो.

मैं हताश हो गया और पंडित जी की सटकी और चुटकी याद आने लगी ..

त्रिपाठी जी - अच्छा अब तुम दोनों (प्रश्न संख्या तीन)  सत्रह और उन्नीस का पहाड़ा लिखो .

हम दोनों लिखने लगे और लिख कर कहा - जी लिख लिया .  

त्रिपाठी जी - ठीक है . (मुझे देखते हुए) अब दो प्रश्न मौखिक पूछ रहा हूँ उनके उत्तर मौखिक दो . रवींद्र खड़े हो जाओ और वह पन्ना निकाल कर मुझे दे दो और तुम अपनी कक्षा में जाओ .

रवींद्र ने वैसा ही किया  और चला गया तो त्रिपाठी जी ने मुझसे (प्रश्न संख्या चार) पंद्रह का पहाड़ा सुनाने को कहा .

मैंने सुनाया - पंद्रह दूनी तीस, तियाँ पैंताला, चौके साठ, पँचे पचहत्तर, छक्के नब्बे, सते पंचोपर, अट्ठे बीसा, नौ पैंतीसा, दहम डेढ़ सौ.

वे मुस्कुराये और बोले - इसे तो पंडित जी ने नहीं सिखाया होगा ..
मैंने कहा - नहीं, इसे मेरे बाबा जी ने सिखाया है .

वे हँसते हुए बोले - बिलकुल यह प्रधान जी ही सिखा सकते हैं. (हमारे बाबा जी स्वतंत्र भारत की पहली दो पंचवर्षीय में गाँव के प्रथम प्रधान चुने गए थे. क्योंकि द्वितीय पंचवर्षीय में चुनाव नहीं हुए इसलिए पूर्वचयनित प्रधान ही दूसरी पंचवर्षीय में कार्य करते रहे थे).

फिर वे बोले -(प्रश्न संख्या पाँच) तो अब बताओ : 
कै अट्ठे बारह, कै अट्ठे बीस .. 
कै नवाईं बिन सुन्न के नब्बे, कै दहाईं तीस ..

बाबा जी ने मुझे यह भी बताया था अतः मैंने उत्तर दिया - 
डेढ़ अट्ठे बारह, ढाई अट्ठे बीस .. 
एक नवाईं.बिन सुन्न का नब्बे, तीन दहाईं तीस...

वे हँसने लगे और बोले- जाओ, प्रधान जी से कहना मैं शाम को उनसे मिलने आऊँगा. जाओ बाहर से पंडित जी को भेज देना ..
मैं चला आया और पंडित जी से अंदर जाने को कहा . वे बोले - सब कुछ आ गया था कि नहीं !
मैंने कहा - नहीं, एक नहीं आया था ..

उन्होंने मुँह बिचकाया और बोले - तुम यहीं रुको. मैं मिलकर आता हूँ . फिर चलता हूँ.

कुछ देर में वे आये . उनके चेहरे पर प्रसन्नता थी . आते ही बोले - त्रिपाठी जी बहुत खुश हैं. तुमसे. छमाही में तुम कक्षा तीन में पढ़ने लगोगे .. कल से यहाँ आकर कक्षा दो में बैठने लगो . चलो अब घर चलते हैं.

रास्ते मैंने उनसे कहा- पंडित जी, उनचासी को हम नहीं लिख पाए थे ..
इस पर वे हँसे और बोले - वह तो त्रिपाठी जी की चालाकी थी. उनचासी होता ही नहीं है .. उनचास होता है या फिर पचासी .. तुमने नहीं लिखा तो अच्छा ही हुआ न .. दूसरे लड़के ने 49 लिखा था . अब कल से तुम कक्षा दो में बैठ कर पढ़ाई करो ..
    

यही हुआ .. छमाही परीक्षाओं के बाद मुझे कक्षोन्नति मिली किन्तु कक्षा तीन मैं ठीक से पास नहीं कर सका और मुझे संपारित करके कक्षा चार में पढ़ने की अनुमति दे दी गयी. इस प्रकार मैंने एक वर्ष में दो कक्षाएं पास की थीं. तब पंडित जी की अच्छी खासी 'जय'कार हुई थी.

जिजीविषा

रुधिर जब  मुक्त होता है तो धमनी रोक  ना पाती 
सहज ही बह निकलते अश्रु, विरहणी रोक ना पाती 
भले  ही  फेंक  दो  इसको, तले  पत्थर  शिलाओं के 
अंकुरित  हो  गया 'जय' तो, ये धरणी रोक  ना पाती 

अनजाना

वो  देखो  उसकी  मुट्ठी में, एक दाना भुना सा है
लंगोटी उसके तन पर  है, माथा कुछ तना सा है
भले ही काया श्यामल हो, हृदय में गंग - धारा है
न जाने क्यों फिर से 'जय', अनजाना बना सा है

समय

जिन्होंने मुझसे सीखा था ककहरा अपने जीवन का 
जिन्हे हमने दिखाया था, दर्पण उनके निज-मन का 
समय  बीता,  दृष्टि रूठी,  हृदय  की  धड़कने बदलीं 
वो देखो आज आये हैं,  लिए हाथों  में  सिर 'जय' का