Saturday, July 5, 2014

ज़िन्दगी

अज़ब गज़ब से रूप  दिखाती है ज़िन्दगी
पल में हमें हँसाती है रुलाती है ज़िन्दगी

मझधार से वो नाव को किनारे पे कभी लाये
साहिल पे आ रहे को भँवर दिखाती है जिंदगी 

जिसने मज़ाक बनाए थे लोगों पे रोज़ ही 
इंतज़ार करो, उसकी हँसी उड़ाती है ज़िन्दगी 

दोपहर में लाख तप रहा हो आफ़ताब   
उस वक़्त बदलियों से शाम लाती है ज़िन्दगी 

उड़ते जहाज़ को आसमां के पार ले जाती 
गिरता है तो समुंदर में डुबाती है ज़िन्दगी  

'जय' ने हराम माना जिन्हें सारी उम्र भर 
क्यों उनके हसीं ख्वाब दिखाती है ज़िन्दगी 

Sunday, May 4, 2014

जीवन-नैया


लहरें  हैं  श्वासों  जैसी,  'जय' - जीवन  है  सरिता  जैसा,
आशाओं  सा  उगता  सूरज, ढलता  सूरज  है  विपदा सा
कर्म - धर्म दो तट जैसे हैं, कुछ अधिकार सुदृढ़ नौका से
कर्तव्य बने पतवार हाथ में, निस्पृह - मन नाविक जैसा

Saturday, May 3, 2014

हे तारक!



हे तारक! इठलाओ मत तुम, अभी टूट जाओगे 
टूटे तारे! याद ये रखना, कभी चमक न पाओगे 
रजनी 'जय' जाने वाली है,ऊषा ने बिखराई लाली
सौम्य रहे तो गगन-पटल पर साँझ पुनः आओगे

Tuesday, April 15, 2014

मैं चलूँगी साथ, प्रियतम !


अब  न  रोको, मैं  चलूँगी  साथ,  प्रियतम !
बिन गिरा के, है अकल्पित नाद, प्रियतम !

वनवास  में  श्रीराम  जी  को  क्या हुआ ?
उनके संग थी  संगिनी  मिथिला - सुता  
उर्मिला बिन लखन को आघात, प्रियतम !
अब  न  रोको, मैं  चलूँगी  साथ, प्रियतम !

मैं  अप्सरा  सी  रूपिणी  तो  हूँ  नहीं 
पर सप्तपद  की  संगिनी  तो  हूँ  सही 
माँगती हूँ वचनों का निर्वाह, प्रियतम !
अब न रोको, मैं चलूँगी साथ, प्रियतम !

विरह  के एकाकी  पथ पर क्यों चलूँ ?
मैं  शरद  की  चाँदनी  में  क्यों जलूँ ?
मदन रह-रह फेंकता है पाश, प्रियतम ! 
अब न रोको, मैं चलूँगी साथ, प्रियतम ! 

बहुत  कुछ  है अर्थ, सब कुछ भी नहीं
मेरे समर्पित  प्रणय का, कण भी नहीं
यदि रही, तो होऊँगी 'जय' राख, प्रियतम !
अब  न  रोको, मैं  चलूँगी  साथ, प्रियतम !

गिरा : वाणी अथवा शब्द 
नाद : उच्च स्वर
मिथिला-सुता : सीताजी  
सप्तपद : सात भाँवरे (वैवाहिक बंधन) 
मदन : कामदेव  
पाश : बंधन 
अर्थ : धन(नौकरी) 


चित्र सौजन्य : गूगल 

Tuesday, March 25, 2014

हमें ऐतबार ना होता


हमें  ऐतबार  ना  होता, अगर  हम  सो  रहे  होते 
खुली आँखों  से देखा  जो, उसी के  हो  रहे  होते।
खुदा  की मेहरबानी  ही मुझे  साहिल पे ले आयी
लहर  थी  एक ऐसी वह,  भँवर  में खो रहे होते।।

बला  की शख्सियत उसकी, बड़ी भोली अदाकारी
चुहलबाजी,  ग़ज़लगोई,  खिलाड़ीपन,  कथाकारी 
हमेशा  उसकी  जानिब  की गली में भीड़ रहती है 
कदम  दो गर  चले होते तो हम भी भीड़ में होते।।

हमें शोहरत न रास आयी, तोहमत ही मिली इतनी 
आहिस्ता  हम  चला करते, चलें वो जैसे हों बिजली
सदा  वो  हमसे  कहते  थे, महल  सारा  तुम्हारा  है,
अगर 'जय' दिल की सुन लेते, ताला बन गए होते।।

Monday, March 3, 2014

कुछ कौव्वे हंस बने

छूट रहे कुछ मित्र इस तरह, ज्यों टूटे तरुवर से पात
झगड़ रहे हैं आपस ही में, अब व्यंग्य बने प्रतिघात। 
राजनीति के छद्म तटों पर, कुछ कौव्वे हंस बने 'जय', 
चल अब वापस ब्लॉग-जगत, आना चुनाव के बाद ||


Sunday, January 5, 2014

दृष्टिकोण जब भी बदला . . . .



दृष्टिकोण जब भी बदला तो,
रत्नाकर वाल्मीकि बन गए
कल के ऊबड़ - खाबड़ रस्ते,
आज सुघड़ रमणीक बन गए
मनःपटल पर उभरे जब भी,
सकारात्मक  सोच - शिखर
कायर और भीक प्राणी 'जय',
निडर और निर्भीक बन गए