भोर की प्रथम किरण
और तुम्हारी याद
क्योँ आती है एक साथ ।
तुम्हारे माथे की बिंदी की भाँति
उगता हुआ सूरज
न जाने क्योँ मैँ देखता हूँ
उसे तब तक
एकटक
तुम्हारे मधुर चुम्बनोँ का आभास दिलाती हुई
सुबह की कोमल किरणेँ
जब तक सहला न देँ
मेरे केश और ललाट ।
भोर की प्रथम किरण
और तुम्हारी याद
क्योँ आती है एक साथ ।।
इन्ही स्मृतियोँ मेँ निकलता है दिन
और आती है साँझ
फिर घनी हो जाती है तुम्हारी याद
तब डसने लगते हैँ एकाकीपन के
विषैले नाग
बिस्तर पर बैठा हुआ मैँ
भागता हूँ पूरे कमरे मेँ
मैँ चीखता हूँ चिल्लाता हूँ
निःशब्द बिना आवाज
तुम चली गयी हो 'जय' बहुत दूर
अब कभी न आने के लिए
प्रिये ! बुला लो मुझे भी अपने पास ।
भोर की प्रथम किरण
और तुम्हारी याद
क्योँ आती है एक साथ ।।