Wednesday, February 3, 2010

नारी जीवन

( ५ )
पलकों पर मधुरिम पल के तैर रहे थे कुछ सपने
केशराशि थी बिखरी बिखरी अस्त व्यस्त थे सब गहने
सुबह अभी शेष थी आनी उषा भी थी अलसाई
होंठों पर मुस्कान समेटे लेनी चाही एक अंगडाई
पूर्ण रूप से ले भी ना पाई अपनी स्वप्निल अंगड़ाई
तभी कही से चीख और फिर क्रंदन की ध्वनि आयी
मैं निस्तब्ध रही जब देखा प्रिय समक्ष किन्तु निस्पंदन
मैं हत भाग्य बनी विधवा और निरर्थक हो गया जीवन
कहाँ गए वे युगल पुरोहित जिन्होंने शुभदा लगन निकाली
वो मनिहारिन सामने आये जिसने चुडियाँ हाथ में डाली
कहाँ कमी रह गयी थी मुझसे जिससे यह दिन सामने आया
सास स्वसुर की सेवा की थी निशदिन गणपति तुम्हे मनाया
पीलापन है चटख अभी तक जो लगा हथेली पर हल्दी से
सूख न पाई अभी महावर लगी पगों में जो शादी पे
जिन नैनो को झील कहा था वे अश्रु सरोवर बने हुए हैं
नियम और संयम के बादल मम निमित्त अति घने हुए हैं

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