Monday, February 1, 2010

नारी जीवन

( ३ )


बढ़ती हुयी सुता लगती है भारस्वरूपा अतिगुरुतर
लगे खोजने मात पिता अब मेरे लिए सुघड़ घरवर
सांझ ढले जब जल देती मैं पद प्रक्षालन करने को
तातश्री का चिंतित आनन कहजाता सारा कहने को
द्रवित नयन जननी के कहते उनके जीवन की पीड़ा
मुझे काटता सुता-भाव का प्रतिपल एक विषैला कीड़ा
वह सुखकारी संध्या आयी जब माँ ने माथा चूम लिया
मुझे लगा मेरे जीवन का समय चक्र अब घूम लिया
नयन पनीले हुए तात के मेरे सुख या अपने सुख से
चूड़ी संग आशीष मिले हैं मनिहारिन के श्री मुख से
वैवाहिक गीतों संग गूंजे हैं पुरोहितों के वेद गान
शुभ नक्षत्र शुभ घड़ियों में किया पिता ने कन्यादान
माँ ने गले लगा कर मुझको जी भरकर के रुदन किया
भरे कंठ और मंथर गति से पति गेह को गमन किया
छूटा संग आज वर्षों का आज मैं चली हो के पराई
बेटी से बन गयी आज मैं पत्नी , बहू और भौजाई

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