Tuesday, November 30, 2010

अपना क्वांरापन

घोर अमावस की रातें थी जब मैं क्वाँरा था
भटक रहा था इधर उधर, ना प्रेम सहारा था
दूज के चाँद सा जीवन हो गया जब तुम मुझे मिली
रोम रोम हो गया बगीचा जब हृदय में कलियाँ खिली
पूनम का चन्दा बन कर तुम मेरे घर आयीं
जीवन का मिट गया अँधेरा शुभ्र चाँदनी लायीं
बरस दो बरस बीत न पाए, पड़ गया चाँद ग्रहण
पल पल याद आ रहा अब, 'जय' अपना क्वांरापन

Wednesday, November 10, 2010

अमरता

तरलता में सरलता है
सरलता में गहनता है
गहनता ज्ञान का द्योतक
ज्ञान ही से सफलता है
सफलता का नहीं मतलब
कि धनी होकर विलासी हों
बने जन-मन के अधिनायक
इसी में 'जय' अमरता है //

Wednesday, October 13, 2010

कहो तो कब ?



ज़माने में दिवानों की कमी दिखती नहीं या रब!
शुमारी का ख़याल आये, शुरू करना हमी से तब //

अरे! हैं सब ये दीवाने, जिस्म ओ सूरत, दौलत के
तेरी पाकीज़ा रूह से , मुखातिब हैं मेरे दो लब //

मेरे दीदों के लफ़्ज़ों को, अगर पढ़ पाओ, तो जानो
मेरे दीदों में कडवापन अगर देखा, कहो तो कब ??

ज़माना आज सुन्दर सा लगेगा क्यों नहीं तुमको
तेरे दामन में आये हैं सितारे, चाँद, सूरज सब //

तुम्हे फुर्सत अगर हो तो, हमारे पास आओ भी
सुबह से राह मैं देखूं, अभी होने को आयी शब् //

तुम्हारा साथ हो तो फिर , हमें रास्ता नहीं खलता
हमें मंजिल नहीं मिलती, तुम्हारा साथ ना हो जब //

हमारी है नहीं फितरत कि , हम डोलें यहाँ से वां
कोई इसको सराहे 'जय', कोई बोले मुझे बेढब //

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शुमारी = गिनती / पाकीज़ा = पवित्र / मुखातिब = सम्मुख /
दीदों = आँखों / शब् = रात्रि / नहीं खलता = कष्टकारी नहीं
प्रतीत होता / फितरत = विचारशैली / वां = वहां /
सराहे = प्रशंसा करे / बेढब = मूर्ख /

पुष्प की व्यथा


वाह ! कभी मैं सुख का द्योतक !!
आह! कभी मैं दुःख का सूचक !!

कभी विजेता की उरमाला बन कर मैं इतराऊँ
कभी मृतक की देह से लगकर मोक्षप्राप्ति को जाऊँ
कभी देव के शीश चढ़ूँ और धन्य धन्य हो जाऊँ
कभी मानिनी की कोमल काया का भार उठाऊँ
मेरा जीवन पूर्ण समर्पित !!
वाह ! कभी मैं सुख का द्योतक !!
आह! कभी मैं दुःख का सूचक !!

कभी प्रेम के सत्यापन का मैं प्रतीक बन जाऊँ
कभी पुस्तकों में छिप करके मैं अतीत बन जाऊँ
कभी राष्ट्रों की परिभाषाओं में मैं लिख जाऊँ
कभी राष्ट्रनेता की मैं व्यक्तित्व छाप बन जाऊँ
सर्वकाल का 'जय' शुभचिंतक !!
वाह ! कभी मैं सुख का द्योतक !!
आह! कभी मैं दुःख का सूचक !!

Saturday, August 28, 2010

तुम्हारी याद


भोर की प्रथम किरण
और तुम्हारी याद
क्योँ आती है एक साथ ।

तुम्हारे माथे की बिंदी की भाँति
उगता हुआ सूरज
न जाने क्योँ मैँ देखता हूँ
उसे तब तक
एकटक
तुम्हारे मधुर चुम्बनोँ का आभास दिलाती हुई
सुबह की कोमल किरणेँ
जब तक सहला न देँ
मेरे केश और ललाट ।
भोर की प्रथम किरण
और तुम्हारी याद
क्योँ आती है एक साथ ।।

इन्ही स्मृतियोँ मेँ निकलता है दिन
और आती है साँझ
फिर घनी हो जाती है तुम्हारी याद
तब डसने लगते हैँ एकाकीपन के
विषैले नाग
बिस्तर पर बैठा हुआ मैँ
भागता हूँ पूरे कमरे मेँ
मैँ चीखता हूँ चिल्लाता हूँ
निःशब्द बिना आवाज
तुम चली गयी हो 'जय' बहुत दूर
अब कभी न आने के लिए
प्रिये ! बुला लो मुझे भी अपने पास ।
भोर की प्रथम किरण
और तुम्हारी याद
क्योँ आती है एक साथ ।।

Sunday, August 15, 2010

मेरो प्यारो बैरी पिया





प्रिय हेरत हेरत दिन निकरो, अब बीति रही है यो रतिया
बिरहन को ताप बढ्यो ऐसो, के बरस गयीं दोनों अँखियाँ

जब ढरकि चल्यो दृगजल गालन ते, भीजि गयीं चोली अंगिया
ना ताप पे शीत बिगरि जाए, अंगिया खोलि गयीं सखियाँ

कैसो यह तेरो प्यार है 'जय', मैं नेह में बन गयी जोगनिया
अब कौन सो बदला लेने लग्यो, मुझसे मेरो प्यारो बैरी पिया

Saturday, August 7, 2010

पर मेरा दिमाग मत खाओ



मद्यपान करते ही नहीं तो कैसे तुमको 'पिया' कहूं
यदि मुझसे डर कर शरमाओ तो मैं तुमको 'मियाँ' कहूं

बांके और छबीले होते तो निश्चित तुम 'सजन' कहाते
लज्जावान विनम्र जो होते तो मुझसे तुम 'सनम' कहाते

मैं तुमको 'साजन' ही कहती यदि होते जैसे हो बसंत
स्निग्ध त्वचा के स्वामी होते तो तुम कहला लेते 'कंत'

'प्राणनाथ' तो वह होता है जो प्राणों में हो रचा बसा
हर मन में जब ईश बसा तो 'हृदयेश्वर' भी नहीं कहा

पत्ती जैसे थर थर कांपो तो मैं 'पति' कह दूंगी आज
बिन पगड़ी साफा के कैसे मैं बोलूँ तुमको 'सरताज'

हँस हँस कर यदि धुनें निकालो तो 'हसबैंड' कहे जाओगे
बिन बिन कर यदि खाते फिरते तो 'खाविंद' कहे जाओगे

'जीवन का साथी' कैसा जब जीवन ही हमको पता नहीं
क्या कह कर मैं तुम्हे पुकारूं कुछ भी हमको पता नहीं


आवारा पागल मस्ताना भ्रमर पथिक या 'जय' कह लो
ए जी, ओ जी, अरे, सुनो जी,या जो मन भाए सो कह लो !!

Saturday, June 19, 2010

प्रेम की सूखी नदी

प्रेम की सूखी नदी की , तलहटी में बढ़ रहे हैं /
विरह के ये शंकु पत्थर, अब हृदय में गड़ रहे हैं //

प्रेम जल में तरणि ऊपर, स्वप्न बैठे थे अनेकों
ज्वार ने निगला सभी को बच न पाया एक देखो
आह कैसा समय आया पात द्रुम से झड रहे हैं /
विरह के ये शंकु पत्थर, अब हृदय में गड़ रहे हैं //

तट नहीं मिल पाया मुझको, मैं नदी में ही बहा
बह ना पाया कुछ पगों तक, प्रेम जल भी ना रहा
आगतों को बिन निहारे, हम विगत से लड़ रहे हैं /
विरह के ये शंकु पत्थर, अब हृदय में गड़ रहे हैं //

हर हृदय की कामना कि, वह छुए ऊंचा शिखर
भानु ना बन पाए तो फिर बन रहे हैं ग्रहण क्योंकर
कौन सा 'जय' काव्य इनका, गद्य कैसा पढ़ रहे हैं /
प्रेम की सूखी नदी की , तलहटी में बढ़ रहे हैं /
विरह के ये शंकु पत्थर, अब हृदय में गड़ रहे हैं //

Tuesday, June 15, 2010

क्यों डरते हो

जब हो प्रतिभा परिपूर्ण, पलायन क्यों करते हो ?
जीवन में संघर्ष सतत हों, पर क्यों डरते हो ??

क्षुधापूर्ति के लिए तुम्हे, कुछ अन्न जुटाना होगा /
तनावरण के लिए स्वयं ही, वस्त्र जुटाना होगा //
अन्न वस्त्र के साथ साथ , हे शिथिलमनः प्राणी !
शीत ताप से बचने को , एक भवन बनाना होगा //
जीवन की आवश्यकताओं से, तुम क्यों डरते हो ?
जब हो प्रतिभा परिपूर्ण, पलायन क्यों करते हो ?

तुम रुको नहीं, बढ़ चलो, सतत बढ़ते ही जाओ /
सिन्धु, शैल, सरिता पथ में हों, चढ़ते ही जाओ //
मत तोड़ो डोर प्रयासों की, जब हो जाओ असफल ,
सावधान हो, नयी विधा से, पुनः कार्य करते जाओ //
तुम अकर्मण्य मन बनो, स्वेद से क्यों डरते हो ?
जब हो प्रतिभा परिपूर्ण, पलायन क्यों करते हो ?

निज बाहों को फैला दो, तुमको क्षितिज मिलेगा /
पग दो पग तो चलो, तुम्हे भी लक्ष्य मिलेगा //
अरे ! पुष्प की चाहना करने वाले मानव ,
आज पौध तुम रोपो, कल को पुष्प खिलेगा //
अंक पाश में भरो सफलता, 'जय' क्यों डरते हो ?
जब हो प्रतिभा परिपूर्ण, पलायन क्यों करते हो ?
जीवन में संघर्ष सतत हों, तुम क्यों डरते हो ??

Thursday, June 3, 2010

नयन तुम्हारे भरवाँ करेले

होंठ तुम्हारे रसीली सब्जी
दोनों गाल पराठे कुरमुर
नयन तुम्हारे भरवाँ करेले
कान तुम्हारे पापड चुरमुर

नाभि तुम्हारी दूध कटोरी
कमर कि जैसे प्याज के छल्ले
गरदन सुन्दर शिमला मिर्ची
भरे नितम्ब दही के भल्ले

मोहन भोग रसीले यौवन
है चटनी की सुन्दर प्याली
'जय' बाहें है सेम की फलियाँ
गाजर जैसी टाँगे निराली

Thursday, May 20, 2010

अधमों को भी अधम बना दे

देखा एक दृश्य अलबेला , मैंने श्मशान के ढाल में
काक मांस को पका रही चांडालिनि, मनुज कपाल में
बना लिया था शव अवयवों को , वैकल्पिक ईंधन का रूप
सहसा उलझा प्रश्न एक तब , मेरे वैचारिक जाल में

हे चांडालिनि ! परम अधम तू , और भूमि अवशिष्ट यह
परम हेय है पात्र तुम्हारा , काग मांस भी अति निकृष्ट है
शव के अवयव बने हैं ईंधन , फिर भी पात्र ढका क्यों है
इन अधमों को भी अधम बना दे , ऐसा क्या अपविष्ट है

वह चांडालिनि हँसी और फिर , बोली मुझसे " हे ! 'जय ' जी ,
सत्य कहा , मैं अधम नारि हूँ , यह स्थान भी त्याज्य सही
ईंधन, पात्र अधम है भोजन , फिर भी ढका पात्र इस कर
कोई राष्ट्रद्रोही आ जाये , तो पड़ न जाए पद धूलि कहीं

Wednesday, May 19, 2010

खुदारा ! अब नचा हूँ मैं ......

तुम्हारी आँख के आँसू मुझे अच्छे नहीं लगते
दिवानों की तरह बहते मुझे सच्चे नहीं लगते
जो कहना हो तुम्हे ,खुलकर वो बातें आज कह भी दो
सताने के लिये ही क्या तुम्हे बच्चे हमीं दिखते

हमारे घर में आयी है तुम्हारे राह की खुशबू
तभी से है झगडती यह मेरी धड़कन खुद ही हमसू
ये कहती है चलूँ बाहर जाकर के तुम्हे लाऊँ
ये नाहक हो रही पागल तुम्हे आना इधर ही कू

हमारे गीत की पंक्ति कभी तो गुनगुनाओगे
मेरा वादा है तुम पढ़कर स्वयं ही मुस्कुराओगे
रहोगे दूर तुम कितना अभी यह देखना बाकी
हृदय यह कहता है मुझसे मुझे तुम अब बुलाओगे

मेरी आँखों में जो सपने हैं उनका क्या करेंगे हम
तुम्हारे दिल की राहों में भला कैसे चलेंगे हम
जहां पर एक दरवाजा था मेरे आने जाने का
वहीं पर तो दिवारे हैं नहीं अब मिल सकेंगे हम

मेरी साँसों में डालो जी ज़रा सी अपनी साँसे भी
बहुत दिन के चले हैं हम अभी भूखे हैं प्यासे भी
तुम्हारी चन्द साँसे ही मुझे जीवन नया देंगीं
यही तो मीठी मिश्री हैं , मावा हैं , बताशे हैं

मुझे तो मार डालेगा तुम्हारी आँख का जादू
तुम्हे देखूँ तो बेचैनी बढे, बढ़कर हो बेकाबू
मैं टोंकू लाख धड़कन को मगर बनती सुनामी यह
संभालो मुझको यारो तुम कोई भैया , अरे बाबू

हमारे दिल में रहती हैं तुम्हारी ही घनी यादें
मुझे सब याद हैं अबतक तुम्हारी वो कही बातें
ज़रा मायूस हूँ लेकिन नहीं जीवन से मैं हारा
तुम्हे ही ढूंढती रहती ज़माने में मेरी आँखें

ये सोचा था ज़माने की निगाहों से बचा लूं मैं
तुम्हे नज़दीक पाकर मैं ज़माने से छिपा लूं मैं
ये मेरा था वहम खालिस कि ' जय ' तुम भोले भाले हो
ज़माने को नचाया है , खुदारा ! अब नचा हूँ मैं

Wednesday, May 12, 2010

दीप जलें तो दिल जलता है

दीप जलें तो दिल जलता है , रात ढले तो नयन हैं रोते /
स्मृतियों के घने मेघ अब , मेरे अंतर्मन को भिगोते //
मैं शिलाखंड सा मूढ़ मति , तुम अविरल प्रपात सी आ के मिली
सानिध्य मिला जब मुझे तुम्हारा , कालिमा मेरी सब बह निकली
मैं शुभ्र धवल और नवल हुआ , अथवा अपराध विहीन हुआ
कृमशः वह पत्थर क्षरित हुआ , और मूर्ति बनी उजली उजली
वो तुम ही हो जिसके कारण , पत्थर को सब नत हैं होते /
दीप जलें तो दिल जलता है , रात ढले तो नयन हैं रोते //
तुम अमर बेल सी मृदु लतिका , क्यों कीकर ही का चयन किया
उसके तीक्ष्ण दीर्घ कंटक , क्यों कोमल तन पर सहन किया
यद्यपि तुम हो बिना मूल की , किन्तु स्वयं आधार बन गयीं
मुझे सहेजा और संवारा , नव सुखद सुकोमल सृजन किया
वो तुम ही हो जिसके कारण , कांटे भी सम्मानित होते /
दीप जलें तो दिल जलता है , रात ढले तो नयन हैं रोते //
कुछ ही मधुमास व्यतीत हुए , तुम बनी हमारी मर्यादा
जीवन था कितना सौम्य सरल , सरस सजीवन सीधा सादा
भृकुटि तनी फिर क्रूर काल की , ध्वस्त हो गए स्वप्न सुहाने
नीव हिल गयी भव्य भवन की , बचा रहा ' जय ' खंडहर आधा
कभी क्षितिज तक भरी उड़ानें , आज उदधि में खाएं गोते /
दीप जलें तो दिल जलता है , रात ढले तो नयन हैं रोते //

Wednesday, May 5, 2010

तुम निशिगंधा सी महक गयी

मैं अमलतास सा बना रहा , तुम निशिगंधा सी महक गयी /
द्विविधावश मैं मूक रहा , तुम मुक्त कंठ से चहक गयी //
उच्च शिखर की चोटी से , अब हमें उतरना ही होगा /
आगत जीवन के लिए हमें , संकल्प बदलना ही होगा //
भावनाओं की ऊंची लहरों से ,हमको लड़ना भी होगा /
अब प्रचंड दैहिक तापों को . हमें शमन करना ही होगा //
मैं झंझावातों में उलझ गया , तुम दिन रहते ही समझ गयी /
मैं अमलतास सा बना रहा , तुम निशिगंधा सी महक गयी //
क्या बहती धाराओं में अब , कलकल संगीत नहीं है ?
मिलने पर गले लगाने की , क्या अब वह रीति नहीं है ?
सप्तपदी में बंधा पुरुष , क्या अब परिणीत नहीं है ?
व्यावसायिकता के जीवन में ,क्या रिश्ते अभिनीत नहीं हैं ?
मैं चिंतनपथ पर ठहर गया , तुम स्वप्नगली में बहक गयी /
द्विविधावश मैं मूक रहा , तुम मुक्त कंठ से चहक गयी //
तुम जब भी मेरे साथ रहो , क्यों लगे हम निर्जन में हैं ?
जब जीवन हम जीना चाहें , क्यों लगे कि हम उलझन में हैं ?
सम्मुख भी दृष्टि न डाले हम , क्या दोष युगल नयनन में है ?
क्यों शब्द सभी ' जय ' अकथ हुए , क्यों गतिरोध कथन में है ?
मैं जीवन की डोर सहेज रहा , क्यों पीड़ा बन तुम कसक गयी ?
मैं अमलतास सा बना रहा , तुम निशिगंधा सी महक गयी /
द्विविधावश मैं मूक रहा , तुम मुक्त कंठ से चहक गयी //

Friday, March 19, 2010

तो अफ़सोस नहीं है

मैं अब जान गया हूँ , कि मुझे होश नहीं है
ज़िन्दगी जीने का मुझमे , अब जोश नहीं हैं
जब भी मिटानी चाही है , तस्वीर किसी की
उतना ही अधिक वह तो , ज़िगरदोज़ हुई है
मैं जानता हूँ आज कलम , बंद है उनकी
पर दिमाग़ और आँख तो , खामोश नहीं है
मेरे साथ वो चले हैं , कदम तीन ही गिन कर
फिर भी मैं गिर पड़ा , तो उनका दोष नहीं है
वो साथ हैं नहीं तो तनिक , रंज तो है " जय "
कोई अच्छा मिल गया हो , तो अफ़सोस नहीं है

Wednesday, March 17, 2010

हृदय दधीचि मर रहा है .......

अति समीप्यबोध को दूर तो हटाईये
हृदय दधीचि मर रहा है फिर परोपकार में
मन मयूर रो रहा है बादलों के शोर से
नयन मीन बन गए हैं प्रिय बिना त्यौहार में
चमक चमक दामिनी उर प्रदाह दे रही
या कि भार बढ़ गया है आज कंठ हार में
रक्त रंजिता हुयी हैं भावनाएं आज सब
कुचल कुचल के मर रही हैं मन महिष की मार से
चाहना यही है एक प्रिय बहुत समीप हो
एक बार आन मिलो अब असीम प्यार में
डूब चली शोक में पपीहरे की बूँद ' जय '
दग्ध हृदय , तप्त गात , मन है उदधि ज्वार में
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Thursday, March 4, 2010

कितना अच्छा होता

कितना अच्छा होता , यदि मैं एक ग़ज़ल बन जाऊं /
क्या बात हो कि उनके , होंठों से निकल कर आऊँ //
बन कर के एक बवंडर , डोलूं इधर उधर मैं ,
संग में पहाड़ , नदियाँ, जंगल व समंदर हैं ,
कई बार मिले हैं , मुझे कुछ और ठिकाने भी,
क्या बात हो कि उनके , आँचल से फिसल कर आऊँ /
क्या बात हो कि उनके , होंठों से निकल कर आऊँ //
ये कैसा रंग रूप है , ये कैसा मेरा जीवन ,
हैं व्यर्थ मेरी वाणी , श्वास और स्पंदन ,
हैं फूल हज़ारों खिले , मैं ऐसा बगीचा हूँ ,
क्या बात हो कि उनके , गजरे का कँवल बन जाऊँ /
क्या बात हो कि उनके , होंठों से निकल कर आऊँ //
काबा में सजदा करके , काशी में सर झुकाया ,
गुरूद्वारे में मत्था टेका , गिरजा में बैठ आया ,
विश्राम भला क्यों कर , पायेंगे कदम तबतक ,
क्या बात हो कि उनके, सपनों में टहल कर आऊँ /
क्या बात हो कि उनके , होंठों से निकल कर आऊँ //
जब वो नहीं समीप तो , मधुमास आग जैसा ,
कितना भी मेह बरसे , सावन है जेठ का सा ,
ये दृष्टि दोष है मेरा, या कुछ और बात है ' जय '
क्या बात हो कि उनकी , आँखों में मचल कर आऊँ /
क्या बात हो कि उनके , होंठों से निकल कर आऊँ //

प्रगति पथ

विकृत सी अभिलाषाओं को
अब तुझे दमन करना होगा /
उन्नति के स्वर्णिम पथ पर
तब तुझे गमन करना होगा //
अति दुर्गम यह राह नयी है
पर तुझको चलना ही है /
कितनी ही हो दुसह चढ़ाई
किन्तु तुझे चढ़ना ही है /
खुले चक्षु और अति धीरज
से शनै शनै बढना ही है /
काम क्रोध मद लोभ सभी का
अब तुझे क्षरण करना होगा //
विकृत सी अभिलाषाओं को
अब तुझे दमन करना होगा //
उन्नति के स्वर्णिम पथ पर
तब तुझे गमन करना होगा //

Wednesday, February 24, 2010

मुझे लगा तुम आ जाओगी

मुझे लगा तुम आ जाओगी
मेरे सर को सहलाओगी
आज अगर तुम यहाँ पे होती
मुझको सीने से चिपटाती
बैठे बैठे हर पल रोती
रह रह कर तुम गले लगाती
चारो ओर सगे संबंधी
सास श्वसुर देवर और ननदी
कैसे खुद को समझोगी
मुझे लगा तुम आ जाओगी
याद आ रहे मधुरिम पल वो
महामिलन के अनुपम क्षण वो
प्रणयवद्ध जब मिले थे दोनों
रक्तिम स्वेदज रज के कण वो
मदिर मदिर वो कई महीने
ली हैं बलैया आज सभी ने
भरद्वाज नव जन्माओगी
मुझे लगा तुम आ जाओगी
नन्हा सा वह रुई का फाहा
कम्बल में वह सोता आया
उसे दिया मेरी बाहों में
निकल पडी अंतिम राहों में
ढरक चला नैनों से पानी
पूर्ण हो गयी एक कहानी
अब जीवन भर तड़पाओगी
मुझे लगा तुम आ जाओगी
नन्हा मुन्ना गोरा चिट्टा
आज हो गया हट्टा कट्टा
अब विवाह की बात चली है
तव प्रतिरूपा बहू मिली है
मुझे तीर्थ पर जाना होगा
पातक सभी मिटाना होगा
आशा है तुम मिल जाओगी
मुझे लगा तुम आ जाओगी
तनिक दूर ही मैं चल पाया
वाहन थोड़ा डग मगाया
फिर गहरी खाई में गिर गया
सब के संग मैं भी तो मर गया
अपने शव के आस पास हूँ
थोडा विस्मित और उदास हूँ
मुझे लगा तुम आ जाओगी
मेरे सर को सहलाओगी

Monday, February 22, 2010

अब आ भी जाइये

दिन आ गए बहार के , अब आ भी जाइये
आँखों में बनके ज्वार अब , छा भी जाइये
मतवाला करने वाली , पुरवाई बह रही है
बौरों को सहेजे हुए , अमराई कह रही है
" बाहों में मुझे लेकर , मुझमे ही समा जाओ "
कोयल की कूक मन में , एक हूक दे रही है
भौरों की तुम पुकार ले , अब आ भी जाइए
दिन आ गए बहार के , अब आ भी जाइये
खेतों में पीले सरसों , लहरायें जैसे आँचल
इठलाती साफ़ नदिया , आँखों में जैसे काजल
महुए की गंध मन में , उकसाए भाव रह रह
रचते हैं रूप अनुपम , वर्षा में जैसे बादल
होंठों में तुम मल्हार ले , अब आ भी जाइये
दिन आ गए बहार के , अब आ भी जाइये
मधुमास हैं सुहाने , कहते हैं मधु के छत्ते
है नव सृजन की बेला , कहते हैं नए पत्ते
विस्मय नहीं तनिक भी , चंचल हुआ हृदय जो
अंगड़ाईयां भी रह रह , आती हैं अब इकट्ठे
बाहों में ढेरों प्यार ले , अब आ भी जाइये
दिन आ गए बहार के, अब आ भी जाइये
आँखों में बनके ज्वार अब , छा भी जाइये

Sunday, February 14, 2010

तुम

चांदनी से शब्द लेकर , गीत गाओ तुम पवन सा
बादलों से नाद लेकर , राग छेड़ूँ मैं गगन सा
प्रेम के पावन दिवस पर , क्या कहूं मैं आपको
मेरे तन के प्राण , धड़कन , आत्मा तो आप हो
मन व्यथित जब भी हुआ तो , नव दिशा दी आपने
लेखनी तुम मसि बना मैं , हो गया है नव सृजन सा
चांदनी से शब्द लेकर , गीत गाओ तुम पवन सा
मुझ निठल्ले मनुज तन को , दे रही हो सुघड़ता
मरू के जैसे अतृण हृद को , दे रही हो आर्द्रता
धन्य हो कि निमित्त मेरे, होम जीवन कर दिया
तुम बनी समिधा सुहानी, और मैं पावन हवन सा
चांदनी से शब्द लेकर , गीत गाओ तुम पवन सा
रूपसी तुम हो न हो , पर तुम गुणों की खान हो
अभिमान हो सम्मान हो तुम , और मेरा मान हो
कामना है कि तुम्हारा , नाम हो परिमल सदृश
मृत्यु ले जायेगी तन , नाम है सास्वत अगन सा
चांदनी से शब्द लेकर , गीत गाओ तुम पवन सा
मैं तुम्हारी ही धुरी पर , गति सदा पाता रहा
तंतुओं की दृढ दशा में , रति सदा पाता रहा
तुम गृहस्थी में रमी हो , किन्तु हो तुम साधिका
उर्मिला सी तुम प्रिये हो , और ' जय ' तापस लखन सा
चांदनी से शब्द लेकर , गीत गाओ तुम पवन सा

Wednesday, February 10, 2010

मैं


मैं नज़र से ही फलक को , चीथड़ों में बाँट दूं
हाल होगा क्या जमीं का , सोचकर चुपचाप हूँ
मैं नजीरों के अमल को , मानता हरगिज नहीं
पत्थरों पर भी निशाँ , बन जाएँ वो पदचाप हूँ
शान की क्या ज़िन्दगी थी , नेकी और ईमान की
बे - इमानो का शहर है , इस लिए बर्बाद हूँ
रंजोगम हैं बेअदब , मिल जाएँ तो कर लो सलाम
आने को इनकी बस्तियां हैं , तैयार मैं उस्ताद हूँ
मेरे साथ यारो जी लो जीभर , जिन्दगी जिन्दादिली से
मौत को भी मौत दे दे , ऐसा ' जय ' जज़्बात हूँ
दोस्तों से मिल रही शाबासी , मुझको याद थी
दुश्मनों की दाद से , हैरान ओ बे आवाज हूँ

Thursday, February 4, 2010

नारी जीवन

( ६ )
एक पुरुष ने मुँह क्या फेरा , अब सबने मुँह मोड़ लिया है
साथी ने क्या साथ को छोड़ा , नाता सबने अब तोड़ लिया है
कल तक जो पायल की रुनझुन , बड़ी सुहावन लगती थी
दीर्घ मांग सिन्दूर से पूरित , सदा ही पावन लगती थी
किसी बधिक के धनुष सदृश थी , नैनों में काजल की रेखा
देख लालिमा ओष्ठ अधर की , प्रिय को सदा तृषित ही देखा
आज वही पायल की रुनझुन , बड़ी कर्कशा लगती है
स्वच्छ धवल सी मांग आज तो , सर्प दंश सी डसती है
काजल और अधर की लाली , ज्यों सपना कोई विगत हुआ
हँसी और मुस्कान रहित , यह जीवन जैसे नरक हुआ
आभूषण और वस्त्र रेशमी , दिए कभी जो अपनों ने
छूना भी अपराध इन्हें अब , डर लगता है सपनो में
हुयी अशेष सर्व अभिलाषा , रंग नहीं अब जीवन में
तड़ितपात का भय लगता , यदि समीप जाऊं दर्पण के
आह दैव ! यह कैसा जीवन , कैसा यह समाज का बंधन
निष्ठुर नियमों के कारण ही , हुयी मंगला आज अभागन
xxxxxxxxxxxxxxxxxx आह्वाहन xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx
आओ युवको , अब कुछ सोचो , समय आत्म मंथन का है
कुछ सामाजिक वर्जनाओं में , आज महा परिवर्तन का है
सामाजिक हों , मर्यादित हों , किन्तु अव्यवहारिक ना हो
ऐसा रचे की जिससे कोई अब , पापित और शापित न हो

Wednesday, February 3, 2010

नारी जीवन

( ५ )
पलकों पर मधुरिम पल के तैर रहे थे कुछ सपने
केशराशि थी बिखरी बिखरी अस्त व्यस्त थे सब गहने
सुबह अभी शेष थी आनी उषा भी थी अलसाई
होंठों पर मुस्कान समेटे लेनी चाही एक अंगडाई
पूर्ण रूप से ले भी ना पाई अपनी स्वप्निल अंगड़ाई
तभी कही से चीख और फिर क्रंदन की ध्वनि आयी
मैं निस्तब्ध रही जब देखा प्रिय समक्ष किन्तु निस्पंदन
मैं हत भाग्य बनी विधवा और निरर्थक हो गया जीवन
कहाँ गए वे युगल पुरोहित जिन्होंने शुभदा लगन निकाली
वो मनिहारिन सामने आये जिसने चुडियाँ हाथ में डाली
कहाँ कमी रह गयी थी मुझसे जिससे यह दिन सामने आया
सास स्वसुर की सेवा की थी निशदिन गणपति तुम्हे मनाया
पीलापन है चटख अभी तक जो लगा हथेली पर हल्दी से
सूख न पाई अभी महावर लगी पगों में जो शादी पे
जिन नैनो को झील कहा था वे अश्रु सरोवर बने हुए हैं
नियम और संयम के बादल मम निमित्त अति घने हुए हैं

Tuesday, February 2, 2010

नारी जीवन

( ४ )
मन की अभिलाषाओं में अब कुसुमाकर का वास हो चला
फूलों पर हर पग है मेरा मुट्ठी में आकाश हो चला
आँखों में मदिरा छलकी है बाहों में अभिमान आ गया
रोम रोम में वीणा गुंजित हृदय में मादक गान आ गया
मधुमिश्रित वह समय भी आया जो कि मिलन के पल थे
मैं प्रियतम की बाँहों में हूँ , और प्रियतम मेरे आँचल में
दहक उठे हैं तन मन दोनों मद पूरित निज उच्छ्वास से
देह धार बह चली नदी सी प्रथम पुरुष के अंक पाश में
काया की कलिका चटकी तो मुदित भ्रमर का नर्तन देखा
कायिक पराग के कर्षण में नख सिख तक स्पंदन देखा
मदन गंध प्रस्फुटित हुयी तो तन अंतर हो गया सुवासित
मेरे अपमानित तन को जैसे आज मिला हो मान असीमित
संध्या और सुबह में मिलती सीख आशीषें सास स्वसुर से
देवर और ननद संग कटते दिवस काल अंत्यंत मधुर से
निशा बीतती पलक झपकते ज्यों मेघ तड़ित अनुराग रहे
हे प्रभु मेरी विनती सुनलो , " मेरा अमर सुहाग रहे "

Monday, February 1, 2010

नारी जीवन

( ३ )


बढ़ती हुयी सुता लगती है भारस्वरूपा अतिगुरुतर
लगे खोजने मात पिता अब मेरे लिए सुघड़ घरवर
सांझ ढले जब जल देती मैं पद प्रक्षालन करने को
तातश्री का चिंतित आनन कहजाता सारा कहने को
द्रवित नयन जननी के कहते उनके जीवन की पीड़ा
मुझे काटता सुता-भाव का प्रतिपल एक विषैला कीड़ा
वह सुखकारी संध्या आयी जब माँ ने माथा चूम लिया
मुझे लगा मेरे जीवन का समय चक्र अब घूम लिया
नयन पनीले हुए तात के मेरे सुख या अपने सुख से
चूड़ी संग आशीष मिले हैं मनिहारिन के श्री मुख से
वैवाहिक गीतों संग गूंजे हैं पुरोहितों के वेद गान
शुभ नक्षत्र शुभ घड़ियों में किया पिता ने कन्यादान
माँ ने गले लगा कर मुझको जी भरकर के रुदन किया
भरे कंठ और मंथर गति से पति गेह को गमन किया
छूटा संग आज वर्षों का आज मैं चली हो के पराई
बेटी से बन गयी आज मैं पत्नी , बहू और भौजाई

Wednesday, January 27, 2010

नारी जीवन

( २ )
देखे हैं मधुमास अष्ट दस मैंने जीवन में अब तक
यौवन के स्पर्श से पुलकित हुए हैं मन और तन के ऊतक
दिव्य धार बह रही हृदय में अधरों पर है पावन गान
रोम रोम में सौम्य समर्पण नयन ढूंढते हैं भगवान्
तरुणाई से अब तक जितना समय विताया है मैंने
देहरी से बाहर जाने को जब कदम बढाया है मैंने
जन मिले मुझे सामान्य बहुत उत्तम और अपने जैसे
किन्तु अधिक है संख्या उनकी जो लगे हेय सपने जैसे
हेय कहूं या दुष्ट कहूं या कहूं मैं पापी अत्याचारी
कुत्सित कुटिल कीट नरभक्षी आततायी या फिर व्यभिचारी
रोम रोम छलनी करने को व्याकुल से बहु मित्र मिले
बड़ी आयु के मिले सयाने पातक तनभेदी दृष्टि लिए
व्यक्त करूँ मैं पीड़ा किससे मात पिता या भाई से
सभी डांट कर कह देते हैं " बैठो , रहो सिधाई से "
निर्बाध घूमते पातक हैं पर मुझे चतुर्दिक मिलते ताना
निरअपराधिन दंड को भोगूँ कैसा यह समाज का बाना

Monday, January 25, 2010

नारी जीवन




( १ )


नारी के कितने जीवन हैं और कितनी परिभाषाएं हैं
नारी जीवन में तो केवल त्याग और अभिलाषाएं हैं

जनम लिया तो माता को मातृत्व का सुखद उपहार दिया
किन्तु कोख को कलुषित कह कर दादी ने तिरस्कार दिया

पिताश्री के मुख मंडल पर पीड़ा बन कर छाई हूँ
यूं लगे कि जैसे प्रलयंकारी स्थितियों को लाई हूँ

कलतक जो माँ थी पलकों पर आज नहीं कोई पूछने वाला
ताक रहे सब डरे डरे यूं सूंघ लिया ज्यों नाग ने काला

पिताश्री के कंधे पर सर रख माँ कल अंतिम बार हँसी थी
प्रसव की पीड़ा को भी उसने हंसी खुशी से सह ली थी

आज जननि का हृदय हो रहा है अगडित तानों से तार तार
दुःख से उबला रक्त और अब बह रही निरंतर अश्रुधार

उल्लासित स्वर ठिठक गए हैं मृतक हो गयी उत्सव चर्चा
स्वस्तिवचन मिल रहे मुझे अब , 'करमजली तू मर जा मर जा '

सुन्दर पल था गर्भ का जीवन किन्तु दुखद नव जीवन है
कोमल कोमल कोंपल का यह कैसा अद्भुद अभिनन्दन है